काव्यखंड: प्रकरण 2
(संवत् 1925-1950)
नई धारा : प्रथम उत्थान
यह सूचित किया जा चुका है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिस प्रकार गद्य की
भाषा का स्वरूप स्थिर करके गद्य साहित्य को देशकाल के अनुसार नए नए विषयों
की ओर लगाया, उसी प्रकार कविता की धारा को भी नए नए क्षेत्रों की ओर मोड़ा।
इस नए रंग में सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति की वाणी का था। उसी से लगे हुए विषय
लोकहित, समाजसुधार, मातृभाषा का उध्दार आदि थे। हास्य और विनोद के नए विषय
भी इस काल में कविता को प्राप्त हुए। रीतिकाल के कवियों की रूढ़ि में
हास्यरस के आलंबन कंजूस ही चले आते थे। पर साहित्य के इस नए युग के आरंभ से
ही कई प्रकार के नए आलंबन सामने आने लगे, जैसे , पुरानी लकीर के फकीर, नए
फैशन के गुलाम, नोच खसोट करने वाले अदालती अमले, मूर्ख और खुशामदी रईस, नाम
या दाम के भूखे देशभक्त इत्यादि। इसी प्रकार वीरता के आश्रय भी जन्मभूमि के
उध्दार के लिए रक्त बहानेवाले, अन्याय और अत्याचार का दमन करने वाले
इतिहासप्रसिद्ध वीर होने लगे। सारांश यह कि इस नई धारा की कविता के भीतर
जिन नए नए विषयों के प्रतिबिंब आए, वे अपनी नवीनता से आकर्षित करने के
अतिरिक्त नूतन परिस्थिति के साथ हमारे मनोविकारों का सामंजस्य भी घटित कर
चले। कालचक्र के फेर से जिस नई परिस्थिति के बीच हम पड़ जाते हैं, उसका
सामना करने योग्य अपनी बुद्धि को बनाए बिना जैसे काम नहीं चल सकता, वैसे ही
उसकी ओर अपनी रागात्मिका वृत्ति को उन्मुख किए बिना हमारा जीवन फीका, नीरस,
शिथिल और अशक्त रहता है।
विषयों की अनेकरूपता के साथ साथ उनके विधान का ढंग भी बदल चला। प्राचीन
धारा में 'मुक्तक' और 'प्रबंध' की जो प्रणाली चली आती थी, उससे कुछ भिन्न
प्रणाली का भी अनुसरण करना पड़ा। पुरानी कविता में 'प्रबंध' का रूप कथात्मक
और वस्तु वर्णनात्मक ही चला आता था। या तो पौराणिक कथाओं, ऐतिहासिक वृत्तों
को लेकर छोटे छोटे आख्यान काव्य रचे जाते थे, जैसे , पद्मावत, रामचरितमानस,
रामचंद्रिका, छत्राप्रकाश, सुदामाचरित, दानलीला, चीरहरन लीला इत्यादि ,
अथवा विवाह, मृगया, झूला, हिंडोला, ऋतुविहार आदि को लेकर वस्तुवर्णनात्मक
प्रबंध। अनेक प्रकार के सामान्य विषयों पर, जैसे , बुढ़ापा, विधिविडंबना,
जगतसचाईसार, गोरक्षा, माता का स्नेह, सपूत, कपूत , कुछ दूर तक चलती हुई
विचारों और भावों की मिश्रित धारा के रूप में छोटे छोटे प्रबंधों या
निबंधों की चाल न थी। इस प्रकार के विषय कुछ उक्तिवैचित्रय के साथ एक ही
पद्य में कहे जाते थे अर्थात् वे मुक्तक की सूक्तियों के रूप में ही होते
थे। पर नवीन धारा के आरंभ में छोटे छोटे पद्यात्मक निबंधों की परंपरा भी
चली जो प्रथम उत्थानकाल के भीतर तो बहुत कुछ भावप्रधान रही पर आगे चलकर
शुष्क और इतिवृत्तात्मक (मैटर ऑव फैक्ट) होने लगी।
नवीनधारा के प्रथम उत्थान के भीतर हम हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र,
अंबिकादत्त व्यास, राधाकृष्णदास, उपाधयाय बदरीनारायण चौधारी आदि को ले
सकतेहैं।
1. भारतेंदु हरिश्चंद्र , जैसा ऊपर कह आए हैं, नवीन धारा के बीच भारतेंदु
की वाणी का सबसे ऊँचा स्वर देशभक्ति का था। नीलदेवी, भारतदुर्दशा आदि
नाटकों के भीतर आई हुई कविताओं में देश दशा की जो मार्मिक व्यंजना है, वह
तो है ही; बहुत सी स्वतंत्र कविताएँ भी उन्होंने लिखीं जिनमें कहीं देश के
अतीत गौरव गाथा का गर्व, कहीं वर्तमान अधाोगति की क्षोभभरी वेदना, कहीं
भविष्य की भावना से जगी हुई चिंता इत्यादि अनेक पुनीत भावों का संचार पाया
जाता है। 'विजयिनीविजय वैजयंती' में, जो मिस्र में भारतीय सेना की विजय
प्राप्ति पर लिखी गई थी, देशभक्ति व्यंजक कैसे भिन्न भिन्न संचारी भावों का
उद्गार है! कहीं गर्व, कहीं क्षोभ, कहीं विषाद। 'सहसन बरसन सों सुन्यो जो
सपने नहिं कान, सो जय आरज शब्द को सुन', और 'फरकि उठीं सबकी भुजा, खरकि
उठीं तरवार। क्यों आपुहिं ऊँचे भए आर्य मोछ के बार' का कारण जान, प्राचीन
आर्य गौरव का गर्व कुछ आ ही रहाथा कि वर्तमान अधाोगति का दृश्य ध्यान में
आया और फिर वही 'हाय भारत!' कीधाुन।
हाय! वहै भारत भुव भारी । सब ही विधि सों भई दुखारी
हाय! पंचनद, हा पानीपत । अजहुँ रहे तुम धारनि बिराजत
हाय चित्तौर! निलज तू भारी । अजहुँ खरो भारतहि मँझारी
तुममें जल नहिंजमुनागंगा । बढ़हु बेगि किन प्रबल तरंगा
बोरहु किन झट मथुरा कासी? धाोवहु यह कलंक की रासी
'चित्तौर', 'पानीपत' इन नामों मेंं ही हिंदूहृदय के लिए कितने भावों की
व्यंजना भरी है। उसके लिए ये नाम ही काव्य हैं। नीलदेवी में यह कैसी करुण
पुकारहै ,
कहाँ करुणानिधि केशव सोये?
जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोये
यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि भारतेंदुजी ने हिन्दी काव्य को केवल नए नए
विषयों की ओर ही उन्मुख किया, उसके भीतर किसी नवीन विधान या प्रणाली का
सूत्रपात नहीं किया। दूसरी बात उनके संबंध में ध्यान देने की यह है कि वे
केवल 'नरप्रकृति' के कवि थे, बाह्य प्रकृति की अनेकरूपता के साथ उनके हृदय
का सामंजस्य नहीं पाया जाता। अपने नाटकों में दो एक जगह उन्होंने जो
प्राकृतिक वर्णन रखे हैं (जैसे सत्य हरिश्चंद्र में गंगा का वर्णन,
चंद्रावली में यमुना का वर्णन) वे केवल परंपरापालन के रूप में हैं। उनके
भीतर उनका हृदय नहीं पाया जाता। वे केवल उपमा और उत्प्रेक्षा के चमत्कार के
लिए लिखे जान पड़ते हैं। एक पंक्ति में कुछ अलग अलग वस्तुएँ और व्यापार हैं
और दूसरी पंक्ति में उपमा या उत्प्रेक्षा। कहीं कहीं तो यह अप्रस्तुत विधान
तीन पंक्तियों तक चला चलता है।
अंत में यह सूचित कर देना आवश्यक है कि गद्य को जिस परिमाण में भारतेंदु ने
नए नए विषयों और मार्गाें की ओर लगाया उस परिमाण में पद्य को नहीं। उनकी
अधिकांश कविता तो कृष्णभक्त कवियों के अनुकरण पर गेय पदों के रूप में है
जिनमें राधाकृष्ण की प्रेमलीला और विहार का वर्णन है। श्रृंगाररस के कवित्त
सवैयों का उल्लेख पुरानी धारा के अंतर्गत हो चुका है। देशदशा, अतीतगौरव आदि
पर उनकी कविताएँ या तो नाटकों में रखने के लिए लिखी गईं अथवा विशेष अवसरों
पर, जैसे , प्रिंस ऑफ वेल्स (पीछे सम्राट् सप्तम एडवर्ड) का आगमन, मिस्र पर
भारतीय सेना द्वारा ब्रिटिश सरकार की विजय , पढ़ने के लिए। ऐसी रचनाओं में
राजभक्ति और देशभक्ति का मेल आजकल के लोगों को कुछ विलक्षण लग सकता है।
देशदशा पर दो एक होली वा वसंत आदि गाने की चीजें फुटकल भी मिलती हैं। पर
उनकी कविताओं के विस्तृत संग्रह के भीतर आधुनिकता कम ही मिलेगी।
गाने की चीजों में भारतेंदु ने कुछ लावनियाँ और ख्याल भी लिखे जिनकी भाषा
खड़ी बोली होती थी।
2. पं. प्रतापनारायण मिश्र , भारतेंदुजी स्वयं पद्यात्मक निबंधों की ओर
प्रवृत्त नहीं हुए पर उनके भक्त और अनुयायी पं. प्रतापनारायण मिश्र इस ओर
बढ़े। उन्होंने देशदशा पर ऑंसू बहाने के अतिरिक्त 'बुढ़ापा', 'गोरक्षा' ऐसे
विषय भी कविता के लिए चुने। ऐसी कविताओं में कुछ तो विचारणीय बातें हैं ,
कुछ भावव्यंजना और विचित्र विनोद। उनके कुछ इतिवृत्तात्मक पद्य भी हैं
जिनमें शिक्षितों के बीच प्रचलित बातें साधारण भाषण के रूप में कही गई हैं।
उदाहरण के लिए 'क्रंदन' की ये पंक्तियाँ देखिए ,
तबहि लख्यौ जहँ रह्यो एक दिन कंचन बरसत।
तहँ चौथाई जन रूखी रोटिहुँ को तरसत
जहाँ कृषी वाणिज्य शिल्पसेवा सब माहीं।
देसिन के हित कछू तत्व कहुँ कैसहुँ नाहीं
कहिय कहाँ लगि नृपति दबे हैं जहँ ऋन भारन।
तहँ तिनकी धानकथा कौन जे गृही सधारन
इस प्रकार के इतिवृत्तात्मक पद भारतेंदुजी ने भी कुछ लिखे हैं। जैसे ,
अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धान विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी
मिश्रजी की विशेषता वास्तव में उनकी हास्यविनोदपूर्ण रचनाओं में ही दिखाई
पड़ती है। 'हरगंगा', 'तृप्यंताम्' 'बुढ़ापा', इत्यादि कविताएँ बड़ी विनोदपूर्ण
औरमनोरंजक हैं। 'हिन्दी, हिंदू, हिंदुस्तान' वाली 'हिन्दी की हिमायत' भी
बहुत प्रसिद्ध हुई।
3. उपाधयाय पं. बदरीनारायण चौधारी , इन्होंने अधिकतर विशेष अवसरों पर, जैसे
, दादाभाई नौरोजी के पार्लामेंट के मेंबर होने के अवसर पर, महारानी
विक्टोरिया की हीरक जुबली के अवसर पर, नागरी के कचहरियों में प्रवेश पाने
पर, प्रयाग के सनातन धर्म महासम्मेलन (संवत् 1963) के अवसर पर आनंद आदि
प्रकट करने के लिए कविताएँ लिखी हैं। भारतेन्दु के समान नवीन विषयों के लिए
ये भी प्राय: रोला छंद ही लेते थे। इनके छंदों में यतिभंग प्राय: मिलता है।
एक बार जब इस विषय पर मैंने इनसे बातचीत की, तब इन्हाेंेने कहा , 'मैं
यतिभंग को कोई दोष नहीं मानता; पढ़नेवाला ठीक चाहिए।' देश की राजनीतिक
परिस्थिति पर इनकी दृष्टि बराबर रहती थी। देश की दशा सुधरने के लिए जो
राजनीतिक या धर्म संबंधी आंदोलन चलते रहे, उन्हें ये बड़ी उत्कंठा से परखा
करते थे। जब कहीं कुछ सफलता दिखाई पड़ती, तब लेखों और कविताओं द्वारा हर्ष
प्रकट करते, और जब बुरे लक्षण दिखाई देते तब क्षोभ और खिन्नता। कांग्रेस के
अधिावेशन में ये प्राय: जाते थे। 'हीरक जुबली' आदि की कविताओं को खुशामदी
कविता न समझना चाहिए। उनमें ये देशदशा का सिंहावलोकन करते थे , और
मार्मिकता के साथ।
विलायत में दादा भाई नौरोजी के 'काले' कहे जाने पर इन्होंने 'कारे' शब्द को
लेकर बड़ी सरल और क्षोभपूर्ण कविता लिखी थी। कुछ पंक्तियाँ देखिए ,
अचरज होत तुमहुँ सम गोरे बाजत कारे।
तासों कारे 'कारे' शब्दहु पर हैं वारे
कारे श्याम, राम, जलधार जल बरसनवारे।
कारे लागत ताही सों कारन कों प्यारे
यातें नीको है तुम 'कारे' जाहु पुकारे।
यहै असीस देत तुमकों मिलि हम सब कारे
हीरक जुबली के अवसर पर लिखे 'हार्दिक हर्षादर्श' में देश की दशा का ही
वर्णन है, जैसे ,
भयो भूमि भारत में महा भयंकर भारत।
भये वीरवर सकल सुभट एकहि सँग गारत!!
मरे बिबुधा नरनाह सकल चातुर गुनमंडित।
बिगरो जनसमुदाय बिना पथदर्शक पंडित
नए नए मत चले, नए झगरे नित बाढ़े।
नए नए दुख परे सीस भारत पर गाढ़े
'प्रेमघन' जी की कई बहुत ही प्रांजल और सरल कविताएँ उनके दोनों नाटकों में
हैं। 'भारत सौभाग्य' नाटक चाहे खेलने योग्य न हो, पर देश दशा पर वैसा बड़ा,
अनूठा और मनोरंजक नाटक दूसरा नहीं लिखा गया। उसके प्रारंभ के अंकों में
'सरस्वती', 'लक्ष्मी' और 'दुर्गा' इन तीनों देवियों के भारत से क्रमश:
प्रस्थान का दृश्य बड़ा ही भव्य है। इसी प्रकार उक्त तीनों देवियों के मुख
से विदा होते समय जो कविताएँ कहलाई गई हैं, वे भी बड़ी मार्मिक हैं।
'हंसारूढ़ा सरस्वती' के चले जाने पर 'दुर्गा' कहती है ,
आजु लौं रही अनेक भाँति धाीर धाारि कै।
पै न भाव मोहिं बैठनो सु मौन मारि कै
जाति हौं चली वहीं सरस्वती गई जहाँ
उध्दृत कविताओं में उनकी गद्यवाली चमत्कारप्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती।
अधिकांश कविताएँ ऐसी ही हैं। पर कुछ कविताएँ उनकी ऐसी भी हैं, जैसे ,
'मयंक' और 'आनंद अरुणोदय' , जिनमें कहीं लंबे लंबे रूपक हैं और कहीं उपमाओं
और उत्प्रेक्षाओं की भरमार।
4. ठाकुर जगमोहन सिंह , यद्यपि जगमोहन सिंहजी अपनी कविता को नए विषयों की
ओर नहीं ले गए, पर प्राचीन संस्कृत काव्यों के प्राकृतिक वर्णनों का
संस्कार मन में लिए हुए, अपनी प्रेमचर्या की मधुरस्मृति से समन्वित
विंधयप्रदेश के रमणीय स्थलों को जिस सच्चे अनुराग की दृष्टि से देखा है, वह
ध्यान देने योग्य है। उसके द्वारा उन्होंने हिन्दी काव्य में एक नूतन विधान
का आभास दिया था। जिस समय हिन्दी साहित्य का अभ्युदय हुआ, उस समय संस्कृत
काव्य अपनी प्राचीन विशेषता बहुत कुछ खो चुका था, इससे वह उसके पिछले रूप
को ही लेकर चला। प्रकृति का जो सूक्ष्म निरीक्षण वाल्मीकि, कालिदास और
भवभूति में पाया जाता है, वह संस्कृत के पिछले कवियों में नहीं रह गया।
प्राचीन संस्कृत कवि प्राकृतिक दृश्यों के विधान में कई वस्तुओं की
संश्लिष्ट योजना द्वारा 'बिंबग्रहण' कराने का प्रयत्न करते थे। इस कार्य को
अच्छी तरह सम्पन्न करके तब ये इधर उधर उपमा, उत्प्रेक्षा आदि द्वारा थोड़ा
बहुत अप्रस्तुत वस्तुविधान भी कर देते थे। पर पीछे मुक्तकों में सूक्ष्म और
संश्लिष्ट योजना के स्थान पर कुछ इनी गिनी वस्तुओं को अलग अलग गिनाकर
'अर्थग्रहण' कराने का प्रयत्न ही रह गया और प्रबंधकाव्यों के वर्णनों में
उपमा और उत्प्रेक्षा की इतनी भरमार हो चली कि प्रस्तुत दृश्य गायब हो चला।
यही पिछला विधान हमारे हिन्दी साहित्य में आया। 'षट्ऋतु' वर्णन में
प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों का जो उल्लेख होता था वह केवल 'उद्दीपन' की
दृष्टि से , अर्थात् नायक या नायिका के प्रति पहले से प्रतिष्ठित भाव को और
जगाने या उद्दीप्त करने के लिए। इस काम के लिए कुछ वस्तुओं का अलग अलग नाम
ले लेना ही काफी होता है। स्वयं प्राकृतिक दृश्यों के प्रति कवि के भाव का
पता देनेवाले वर्णन पुराने हिन्दी काव्य में नहीं पाए जाते।
संस्कृत के प्राचीन कवियों की प्रणाली पर हिन्दी काव्य के संस्कार का जो
संकेत ठाकुर साहब ने दिया, खेद है कि उसकी ओर किसी ने ध्यान न दिया।
प्राकृतिक वर्णन की इस प्राचीन भारतीय प्रणाली के संबंध में थोड़ा विचार
करके हम आगे बढ़ते हैं। प्राकृतिक दृश्यों की ओर यह प्यारभरी सूक्ष्म दृष्टि
प्राचीन संस्कृत काव्य की एक ऐसी विशेषता है जो फारसी या अरबी के
काव्यक्षेत्र में नहीं पाई जाती। योरप के कवियों में जाकर ही यह मिलती है।
अंग्रेजी साहित्य में वड्र्सवर्थ, शेली, मेरेडिथ ;ॅवतकेूवतजीए ैीमससलण्
डमतमकपजीद्ध आदि में उसी ढंग का सूक्ष्म प्रतिनिरीक्षण और मनोरम रूपविधान
पाया जाता है जैसा प्राचीन संस्कृत साहित्य में। प्राचीन भारतीय और नवीन
योरोपीय दृश्यविधान में पीछे थोड़ा लक्ष्यभेद हो गया। भारतीय प्रणाली में
कवि के भाव का आलंबन प्रकृति ही रही है, अत: उसके रूप का प्रत्यक्षीकरण ही
काव्य का एक स्वतंत्र लक्ष्य दिखाई पड़ता है। पर योरोपीय साहित्य में
काव्यनिरूपण की बराबर बढ़ती हुई परंपरा के बीच धीरे धीरे यह मत प्रचार पाने
लगा कि 'प्राकृतिक दृश्यों का प्रत्यक्षीकरण मात्र तो स्थूल व्यवसाय है,
उनको लेकर कल्पना की एक नूतन सृष्टि खड़ी करना ही कविकर्म है। 1
उक्त प्रवृत्ति के अनुसार कुछ पाश्चात्य कवियों ने तो प्रकृति के नाना
रूपों के बीच व्यंजित होनेवाली भावधारा का बहुत सुंदर उद्धाटन किया, पर
बहुतेरे अपनी बेमेल भावनाओं का आरोप करके उन रूपों को अपनी अपनी
अंतर्वृत्तिायों से छोपने लगे। अब इन दोनों प्रणालियों में से किस प्रणाली
पर हमारे काव्य में दृश्य वर्णन का विकास होना चाहिए, यह विचारणीय है। मेरे
विचार में प्रथम प्रणाली का अनुसरण ही समीचीन है। अनंत रूपों से भरा हुआ
प्रकृति का विस्तृत क्षेत्र उस 'महामानस' की कल्पनाओं का अनंत प्रसार है।
सूक्ष्मदर्शी सहृदयों को उसके भीतर नाना भावों की व्यंजना मिलेगी। नाना रूप
जिन नाना भावों की सचमुच व्यंजना कर रहे हैं, उन्हें छोड़ अपने परिमित
अंत:कोटर की वासनाओं से उन्हें छोपना एक झूठे खेलवाड़ के ही अंतर्गत होगा।
यह बात मैं स्वतंत्र दृश्यविधान के संबंध में कर रहा हूँ जिसमें दृश्य ही
प्रस्तुत विषय होता है। जहाँ किसी पूर्वप्रतिष्ठित भाव की प्रबलता व्यंजित
करने के लिए ही प्रकृति के क्षेत्र से वस्तुव्यापार लिए जायँगे, वहाँ तो वे
उस भाव में रँगे दिखाई ही देंगे। पद्माकर की विरहणी का यह कहना कि 'किंसुक
गुलाब कचनार औ अनारन की डारन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं।' ठीक ही है। पर
बराबर इसी रूप में प्रकृति को देखना दृष्टि को संकुचित करना है। अपने ही
सुख दु:ख के रंग में रँगकर प्रकृति को देखा तो क्या देखा? मनुष्य ही सब कुछ
नहीं है। प्रकृति का अपना रूप भी है।
5. पं. अंबिकादत्त व्यास , व्यास जी ने नए नए विषयों पर भी कुछ फुटकल
कविताएँ रची हैं जो पुरानी पत्रिकाओं में निकली हैं। एक बार उन्होंने कुछ
बेतुके पद्य भी आजमाइश के लिए बनाए थे, पर इस प्रयत्न में उन्हें सफलता
नहीं दिखाई पड़ी थी, क्योंकि उन्होंने हिन्दी का कोई प्रचलित छंद लिया था।
भारतेंदु के सहयोगियों की बात यहीं समाप्त कर अब हम उन लोगों की ओर जाते
हैं जो उनकी मृत्यु के उपरांत मैदान में आए और जिन्होंने काव्य की भाषा और
शैली में भी कुछ परिवर्तन उपस्थित किया। भारतेंदु के सहयोगी लेखक यद्यपि
देशकाल के अनुकूल नए नए विषयों की ओर प्रवृत्त हुए, पर भाषा उन्होंने
परंपरा से चली आती हुई ब्रजभाषा ही रखी और छंद भी वे ही लिए जो ब्रजभाषा
में प्रचलित थे। पर भारतेंदु के गोलोकवास के थोड़े ही दिनों पीछे भाषा के
संबंध में नए विचार उठने लगे। लोगों ने देखा कि हिन्दी गद्य की भाषा तो खड़ी
बोली हो गई और उसमें साहित्य भी बहुत कुछ प्रस्तुत हो चुका था, पर कविता की
भाषा अभी ब्रजभाषा ही बनी है। गद्य एक भाषा में लिखा जाय और पद्य दूसरी
भाषा में, यह बात खटक चली। इसकी कुछ चर्चा भारतेंदु के समय में ही उठी थी,
जिसके प्रभाव से उन्होंने 'दशरथ विलाप' नाम की एक कविता खड़ी बोली में
(फारसी छंद में) लिखी थी। कविता इस ढंग की थी ,
कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे । किधर तुम छोड़कर हमको सिधाारे
बुढ़ापे में यह दुख भी देखना था । इसी को देखने को मैं बचा था
यह कविता राजा शिवप्रसाद को बहुत पसंद आई थी और इसे उन्होंने अपने गुटका
में दाखिल किया था।
खड़ी बोली में पद्य रचना एकदम कोई नई बात न थी। नामदेव और कबीर की रचना में
हम खड़ी बोली का पूरा स्वरूप दिखा आए हैं और यह सूचित कर चुके हैं कि उसका
व्यवहार अधिकतर सधुक्कड़ी भाषा के भीतर हुआ करता था। शिष्ट साहित्य के भीतर
परंपरागत काव्यभाषा का ही चलन रहा। इंशा ने अपनी 'रानी केतकी की कहानी' में
कुछ ठेठ खड़ी बोली के पद्य भी उर्दू छंदों में रखे। उस समय में प्रसिद्ध
कृष्णभक्त नागरीदास हुए। नागरीदास तथा उनके पीछे होनेवाले कुछ कृष्णभक्तों
में इश्क की फारसी पदावली और गजलबाजी का शौक दिखाई पड़ा। नागरीदास के 'इश्क
चमन' का एक दोहा है ,
कोई न पहुँचा वहाँ आसिक नाम अनेक।
इश्क चमन के बीच में आया मजनूँ एक
पीछे नजीर अकबराबादी ने (जन्म संवत् 1797, मृत्यु 1877) कृष्णलीला संबंधी
बहुत से पद्य हिन्दी खड़ी बोली में लिखे। वे एक मनमौजी सूफी भक्त थे। उनके
पद्यों के नमूने देखिए ,
यारो सुनो ये दधिा के लुटैया का बालपन।
औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन
मोहन सरूप नृत्य करैया का बालपन।
बन बन में ग्वाल गौवें चरैया का बालपन
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।
क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन
परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे।
जोती सरूप कहिए जिन्हें सो वो आप थे
वाँ कृष्ण मदनमोहन ने जब सब ग्वालों से यह बात कही।
औ आपी से झट गेंद उठा उस कालीदह में फेंक दई
यह लीला है उस नंदललन मनमोहन जसुमत छैया की।
रख ध्यान सुनो दंडवत करो, जय बोलो कृष्ण कन्हैया की
लखनऊ के शाह कुंदन लाल और फुंदन लाल 'ललित किशोरी' और ललित माधुरी' नाम से
प्रसिद्ध कृष्णभक्त हुए हैं, जिनका रचनाकाल संवत् 1913 और 1930 के बीच
समझना चाहिए। उन्होंने और कृष्णभक्तों के समान ब्रजभाषा के अनेक पद तो बनाए
ही हैं खड़ी बोली में कई झूलना छंद भी लिखे हैं, जैसे ,
जंगल अब रमते हैं, दिल बस्ती से घबराता है।
मानुष गंधा न भाती है, सँग मरकट मोर सुहाता है
चाक गरेबाँ करके दम दम आहें भरना आता है।
'ललितकिशोरी' इश्क रैन दिन ये सब खेल खेलाता है
इसके उपरांत ही लावनीबाजों का समय आता है। कहते हैं कि मिरजापुर के
तुकनगिरि गोसाईं ने सधुक्कड़ी भाषा में ज्ञानोपदेश के लिए लावनी की लय चलाई।
लावनी की बोली खड़ी बोली रहती थी। तुकनगिरि के दो शिष्य रिसालगिरि और
देवीसिंह प्रसिद्ध लावनीबाज हुए, जिनके आगे चलकर दो परस्पर प्रतिद्वंद्वी
अखाड़े हो गए। रिसालगिरि का ढंग 'तुर्रा' कहलाया जिसमें अधिकतर ब्रह्मज्ञान
रहता था। देवीसिंह का बाना 'सखी का बाना' और उनका ढंग 'कलगी' कहलाया जो
भक्ति और प्रेम लेकर चलता था। लावनीबाजों में काशीगिरि उपनाम बनारसी का बड़ा
नाम हुआ। लावनियों में पीछे उर्दू के छंद अधिकतर लिए जाने लगे। 'ख्याल' को
भी लावनी के अंतर्गत समझना चाहिए।
इसके अतिरिक्त रीतिकाल के कुछ पिछले कवि भी, जैसा कि हम दिखा आए हैं, इधर
उधर खड़ी बोली के दो चार कवित्त सवैये रच दिया करते थे। उधर लावनीबाज और
ख्यालबाज भी अपने ढंग पर कुछ ठेठ हिन्दी में गाया करते थे। इस प्रकार खड़ी
बोली की तीन छंद प्रणालियाँ उस समय लोगों के सामने थीं जिस समय भारतेंदुजी
के पीछे कविता की भाषा का सवाल लोगों के सामने आया , हिन्दी के कवित्त
सवैया की प्रणाली, उर्दू छंदों की प्रणाली और लावनी का ढंग। संवत् 1943 में
पं. श्रीधार पाठक ने इसी पिछले ढंग पर 'एकांतवासी योगी' खड़ी बोली पद्य में
निकाला। इसकी भाषा अधिकतर बोलचाल की और सरल थी। नमूना देखिए ,
आज रात इससे परदेशी चल कीजे विश्राम यहीं।
जो कुछ वस्तु कुटी में मेरे करो ग्रहण, संकोच नहीं
तृण शय्या औ अल्प रसोई पाओ स्वल्प प्रसाद।
पैर पसार चलो निद्रा लो मेरा आसिर्वाद
प्रानपियारे की गुन गाथा, साधु! कहाँ तक मैं गाऊँ।
गाते गाते चुके नहीं वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ
इसके पीछे खड़ी बोली के लिए एक आंदोलन ही खड़ा हुआ। मुजफ्फरपुर के बाबू
अयोध्याप्रसाद खत्री खड़ी बोली का झंडा लेकर उठे। संवत् 1945 में उन्होंने
'खड़ी बोली आंदोलन' की एक पुस्तक छपाई जिसमें उन्होंने बड़े जोर शोर से यह
राय जाहिर की कि अब तक जो कविता हुई, वह तो ब्रजभाषा की थी, हिन्दी की
नहीं। हिन्दी में भी कविता हो सकती है। वे भाषातत्व के जानकार न थे। उनकी
समझ में खड़ी बोली ही हिन्दी थी। अपनी पुस्तक में उन्होंने खड़ी बोली पद्य की
पाँच स्टाइलें कायम की थीं, जैसे , मौलवी स्टाइल, मुंशी स्टाइल, पंडित
स्टाइल, मास्टर स्टाइल। उनकी पोथी में और पद्यों के साथ पाठकजी का
'एकांतवासी योगी' भी दर्ज हुआ। और कई लोगों से भी अनुरोध करके उन्होंने खड़ी
बोली की कविताएँ लिखाईं। चंपारन के प्रसिद्ध विद्वान और वैद्य पं.
चंद्रशेखरधार मिश्र, जो भारतेंदुजी के मित्रों में थे, संस्कृत के अतिरिक्त
हिन्दी में भी बड़ी सुंदर और आशु कविता करते थे। मैं समझता हूँ कि हिन्दी
साहित्य के आधुनिककाल में संस्कृत वृत्तों में खड़ी बोली के कुछ पद्य पहले
पहल मिश्रजी ने ही लिखे। बाबू अयोध्याप्रसादजी उनके पास भी पहुँचे और कहने
लगे , 'लोग कहते हैं कि खड़ी बोली में अच्छी कविता नहीं हो सकती। क्या आप भी
यही कहते हैं? यदि नहीं, तो मेरी सहायता कीजिए।' उक्त पंडितजी ने कुछ कविता
लिखकर उन्हें दी, जिसे उन्होंने अपनी पोथी में शामिल किया। इसी प्रकार खड़ी
बोली के पक्ष में जो राय मिलती, वह भी उसी पोथी में दर्ज होती जाती थी।
धीरे धीरे एक बड़ा पोथा हो गया जिसे बगल में दबाये वे जहाँ कहीं हिन्दी के
संबंध में सभा होती जा पहुँचते। यदि बोलने का अवसर न मिलता या कम मिलता तो
वे बिगड़कर चल देते थे।
संदर्भ
1. देखो, 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' निबंध।
काव्यखंड (संवत् 1950-1975)
प्रकरण 3
नई धारा : द्वितीय उत्थान
सामान्य परिचय
पं. श्रीधार पाठक के 'एकांतवासी योगी' का उल्लेख खड़ी बोली की कविता के आरंभ
के प्रसंग में प्रथम उत्थान के अंतर्गत हो चुका है। उसकी सीधी सादी खड़ी
बोली और जनता के बीच प्रचलित लय ही ध्यान देने योग्य नहीं है, किंतु उसकी
कथा की सार्वभौम मार्मिकता भी ध्यान देने योग्य है। किसी के प्रेम में योगी
होना और प्रकृति के निर्जन क्षेत्र में कुटी छाकर रहना एक ऐसी भावना है जो
समान रूप में सब देशों के और सब श्रेणियों के स्त्री पुरुषों के मर्म का
स्पर्श स्वभावत: करती आ रही है। सीधी सादी खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिए
ऐसी प्रेम कहानी चुनना जिसकी मार्मिकता अपढ़ स्त्रियों तक के गीतों की
मार्मिकता के मेल में हो, पंडितों की बँधी हुई रूढ़ि से बाहर निकलकर अनुभूति
के स्वतंत्र क्षेत्र में आने की प्रवृत्ति का द्योतक है। भारतीय हृदय का
सामान्य स्वरूप पहचानने के लिए पुराने प्रचलित ग्रामगीतों की ओर भी ध्यान
देने की आवश्यकता है, केवल पंडितों द्वारा प्रवर्तित काव्यपरंपरा का
अनुशीलन ही अलम् नहीं है।
पंडितों की बँधी प्रणाली पर चलनेवाली काव्यधारा के साथ साथ सामान्य अपढ़
जनता के बीच एक स्वच्छंद और प्राकृतिक भावधारा भी गीतों के रूप में चलती
रहती है , ठीक उसी प्रकार जैसे बहुत काल से स्थिर चली आती हुई पंडितों की
साहित्यभाषा के साथ साथ लोकभाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है।
जब पंडितों की काव्यभाषा स्थिर होकर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से
दूर पड़ जाती है और जनता के हृदय पर प्रभाव डालने की उसकी शक्ति क्षीण होने
लगती है तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपनी काव्यपरंपरा में नया
जीवन डालता है। प्राकृत के पुराने रूपों से लदी अपभ्रंश जब लद्ध ड़ होने लगी
तब शिष्ट काव्य प्रचलित देशी भाषाओं में शक्ति प्राप्त करके ही आगे बढ़ सका।
यही प्राकृतिक नियम काव्य के स्वरूप के संबंध में भी अटल समझना चाहिए। जब
जब शिष्टों का काव्य पंडितों द्वारा बँधाकर निश्चेष्ट और संकुचित होगा तब
तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश की सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई
प्राकृतिक भावधारा से जीवनतत्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा।
यह भावधारा अपने साथ हमारे चिरपरिचित पशु पक्षियों, पेड़ पौधों, जंगल
मैदानों आदि को भी समेटे चलती है। देश के स्वरूप के साथ यह संबद्ध चलती है।
एक गीत में कोई ग्रामवधू अपने वियोगकाल की दीर्घता की व्यंजना अपने
चिरपरिचित प्रकृति व्यापार द्वारा इस भोले ढंग से करती है ,
जो नीम का प्यारा पौधा प्रिय अपने हाथ से द्वार पर लगा गया वह बड़ा होकर
फूला और उसके फूल झड़ भी गए, पर प्रिय न आया।
इस भावधारा की अभिव्यंजन प्रणालियाँ वे ही होती हैं जिनपर जनता का हृदय इस
जीवन में अपने भाव स्वभावत: ढालता आता है। हमारी भावप्रवर्तिनी शक्ति का
असली भंडार इसी स्वाभाविक भावधारा के भीतर निहित समझना चाहिए। जब पंडितों
की काव्यधारा इस स्वाभाविक भावधारा से विच्छिन्न पड़कर रूढ़ हो जाती है तब वह
कृत्रिम होने लगती है और उसकी शक्ति भी क्षीण होने लगती है। ऐसी परिस्थिति
में इसी भावधारा की ओर दृष्टि ले जाने की आवश्यकता होती है। दृष्टि ले जाने
का अभिप्राय है उस स्वाभाविक भावधारा के ढलाव की नाना अंतर्भूमियों को
परखकर शिष्ट काव्य के स्वरूप का पुनर्विधाान करना। यह पुनर्विधाान सामंजस्य
के रूप में हो, अंधाप्रतिक्रिया रूप में नहीं, जो विपरीतता की हद तक जा
पहुँचती है। इस प्रकार के परिवर्तन को ही अनुभूति की सच्ची नैसर्गिक
स्वच्छंदता
(ट्रई रोमांटिसिज्म) कहना चाहिए, क्योंकि यह मूल प्राकृतिक आधार पर होता
है।
इंगलैंड के जिस स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) का इधर हिन्दी में भी बराबर
नाम लिया जाने लगा है उसके प्रारंभिक उत्थान के भीतर परिवर्तन के मूल
प्राकृतिक आधार का स्पष्ट आधार रहा है। पीछे कवियों की व्यक्तिगत, विद्यागत
और बुद्धि गत प्रवृत्तियों और विशेषताओं के , जैसे रहस्यात्मकता,
दार्शनिकता, स्वातंत्रयभावना, कलाकार आदि के , अधिक प्रदर्शन से वह कुछ ढँक
सा गया। काव्य को पांडित्य की विदेशी रूढ़ियों से मुक्त और स्वच्छंद काउपर
;ब्वूचमतद्ध ने किया था, पर स्वच्छंद होकर जनता के हृदय में संचरण करने की
शक्ति वह कहाँ से प्राप्त करे, यह स्काटलैंड के एक किसानी झोंपड़े में
रहनेवाले कवि बर्न्स ;त्वइमतज ठनतदेद्ध ने ही दिखाया था। उसने अपने देश के
परंपरागत प्रचलित गीतों की मार्मिकता परखकर देशभाषा में रचनाएँ कीं,
जिन्होंने वहाँ सारे जनसमाज के हृदय में अपना घर किया। वाल्टर स्काट ;ँसजमत
ैबवजजद्ध ने देश की अंतर्व्यापिनी भावधारा से शक्ति लेकर साहित्य को
अनुप्राणित किया था।
जिस परिस्थिति में अंग्रेजी साहित्य में स्वच्छंदतावाद का विकास हुआ उसे भी
देखकर समझ लेना चाहिए कि रीतिकाल के अंत में, या तो भारतेंदुकाल के अंत में
हिन्दी काव्य की जो परिस्थिति थी वह कहाँ तक इंगलैंड की परिस्थिति के
अनुरूप थी। सारे योरप में बहुत दिनों तक पंडितों और विद्वानों के लिखने
पढ़ने की भाषा लैटिन (प्राचीन रोमियो की भाषा) रही। फरासीसियों के प्रभाव से
इंगलैंड की काव्यरचना भी लैटिन की प्राचीन रूढ़ियों से जकड़ी जाने लगी। उस
भाषा के काव्यों की सारी पद्ध तियों का अनुसरण होने लगा। बँधी हुई अलंकृत
पदावली, वस्तुवर्णन की रूढ़ियाँ, छंदों की व्यवस्था सब ज्यों की त्यों रखी
जाने लगी। इस प्रकार अंग्रेजी काव्य, विदेशी काव्य और साहित्य की रूढ़ियों
से इतना आच्छन्न हो गया कि वह देश की परंपरागत स्वाभाविक भावधारा से
विच्छिन्न सा हो गया। काउपर, क्रैव और बर्न्स ने काव्यधारा को साधारण जनता
की नादरुचि के अनुकूल नाना मधुर लयों में तथा लोक हृदय के ढलाव की नाना
मार्मिक अंतर्भूमियों में ढाला। अंग्रेजी साहित्य के भीतर काव्य का यह
स्वच्छंद रूप पूर्व रूप से बहुत अलग दिखाई पड़ा। बात यह थी कि लैटिन (जिसके
साहित्य का निर्माण बहुत कुछ यवनानी ढाँचे पर हुआ था) इंगलैंड के लिए दूर
देश की भाषा थी अत: उसका साहित्य भी वहाँ के निवासियों के अपने चिरसंचित
संस्कार और भावव्यंजनपद्ध ति से दूर पड़ता था।
पर हमारे साहित्य में रीतिकाल की जो रूढ़ियाँ हैं वे किसी और देश की नहीं,
उनका विकास इसी देश के साहित्य के भीतर संस्कृत में हुआ है। संस्कृत काव्य
और उसी के अनुकरण पर रचित प्राकृत अपभ्रंश काव्य भी हमारा ही पुराना काव्य
है, पर पंडितों और विद्वानों द्वारा रूप ग्रहण करते रहने और कुछ बँधा जाने
के कारण जनसाधारण की भावमयी वाग्धारा से कुछ हटा सा लगता है। पर एक ही देश
और एक ही जाति के बीच आविर्भूत होने के कारण दोनों में कोई मौलिक पार्थक्य
नहीं। अत: हमारे वर्तमान काव्यक्षेत्र में यदि अनुभूति की स्वच्छंदता की
धारा प्रकृत पद्ध ति पर अर्थात् परंपरा से चले आते हुए मौखिक गीतों के
मर्मस्थल से शक्ति लेकर चलने पाती तो वह अपनी ही काव्यपरंपरा होती , अधिक
सजीव और स्वच्छंद की हुई।
रीतिकाल के भीतर हम दिखा चुके हैं कि किस प्रकार रसों और अलंकारों के
उदाहरणों के रूप में रचना होने से और कुछ छंदों की परिपाटी बँधा जाने से
हिन्दी कविता जकड़ सी उठी थी। हरिश्चंद्र के सहयोगियों में काव्यधारा को
नएनए विषयों की ओर मोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी, पर भाषा ब्रज ही रहने दी
गई और पद्य के ढाँचों, अभिव्यंजना के ढंग तथा प्रकृति के स्वरूपनिरीक्षण
आदि में स्वच्छंदता के दर्शन न हुए। इस प्रकार की स्वच्छंदता का आभास पहले
पहल पं. श्रीधर पाठक ने ही दिया। उन्होंने प्रकृति के रूढ़िबद्ध रूपों तक ही
न रहकर अपनी ऑंखों से भी उसके रूपों को देखा। 'गुनवंत हेमंत' में वे गाँव
में उपजने वाली मूली, मटर ऐसी वस्तुओं को भी प्रेम से सामने लाए जो
परंपरागत ऋतुवर्णनों के भीतर नहीं दिखाई पड़ती थी। इसके लिए उन्हें पं.
माधवप्रसाद मिश्र की बौछार भी सहनी पड़ी थी। उन्होंने खड़ी बोली पद्य के लिए
सुंदर लय और चढ़ाव उतार के कई नए ढाँचे भी निकाले और इस बात का ध्यान रखा कि
छंदों का सुंदर लय से पढ़ना एक बात है, रागरागिनी गाना दूसरी बात। ख्याल या
लावनी की लय पर जैसे 'एकांतवासी योगी' लिखा गया वैसे ही सुथरे साइयों के
सधुक्कड़ी ढंग पर 'जगत्सच्चाई सार' जिसमें कहा गया कि 'जगत् है सच्चा, तनिक
न कच्चा, समझो बच्चा! इसका भेद'। 'स्वर्गीय वीणा' में उन्होंने उस परोक्ष
दिव्य संगीत की ओर रहस्यपूर्ण संकेतकिया जिसके ताल सुर पर यह सारा विश्व
नाच रहा है। इन सब बातों का विचार करने पर पं. श्रीधार पाठक ही सच्चे
स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के प्रवर्तक ठहरते हैं।
खेद है कि सच्ची और स्वाभाविक स्वच्छंदता का यह मार्ग हमारे काव्यक्षेत्र
के बीच चल न पाया। बात यह है कि उस समय पिछले संस्कृत काव्य के संस्कारों
के साथ पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य क्षेत्र में आए जिनका
प्रभाव गद्य साहित्य और काव्यनिर्माण दोनों पर बहुत व्यापक पड़ा। हिन्दी में
परंपरा से व्यवहृत छंदों के स्थान पर संस्कृत के वृत्तों का चलन हुआ, जिसके
कारण संस्कृत पदावली का समावेश बढ़ने लगा। भक्तिकाल और रीतिकाल की परिपाटी
के स्थान पर पिछले संस्कृत साहित्य की पद्ध ति की ओर लोगों का ध्यान बँटा।
द्विवेदीजी 'सरस्वती' पत्रिका द्वारा बराबर कविता में बोलचाल की सीधी सादी
भाषा का आग्रह करते रहे जिससे इतिवृत्तात्मक (मैटर ऑव फैक्ट) पद्यों का खड़ी
बोली में ढेर लगने लगा। यह तो हुई द्वितीय उत्थान के भीतर की बात।
आगे चलकर तृतीय उत्थान में उक्त परिस्थिति के कारण जो प्रतिक्रिया उत्पन्न
हुई, वह भी स्वाभाविक स्वच्छंदता की ओर न बढ़ने पाई। बीच में रवींद्र बाबू
की 'गीतांजलि' की धूम उठ जाने के कारण नवीनता प्रदर्शन के इच्छुक नए कवियों
में से कुछ लोग तो बंग भाषा की रहस्यात्मक कविताओं की रूपरेखा लाने लगे,
कुछ लोग पाश्चात्य काव्यपद्ध ति को 'विश्वसाहित्य' का लक्षण समझ उसके
अनुसरण में तत्पर हुए। परिणाम यह हुआ कि अपने यहाँ की रीतिकाल की रूढ़ियों
और द्वितीय उत्थान की इतिवृत्तात्मकता से छूटकर बहुत सी हिन्दी कविता विदेश
की अनुकृत रूढ़ियों और वादों में जा फँसी। इने गिने नए कवि ही स्वच्छंदता के
मार्मिक और स्वाभाविक पथ पर चले।
1. पं. श्रीधार पाठक , 'एकांतवासी योगी' के बहुत दिनों पीछे पं. श्रीधार
पाठक ने खड़ी बोली में और भी रचनाएँ कीं। खड़ी बोली में इनकी दूसरी पुस्तक
'श्रांत पथिक' (गोल्डस्मिथ के टे्रवेलर का अनुवाद) निकली। इनके अतिरिक्त
खड़ी बोली में फुटकल कविताएँ भी पाठकजी ने बहुत सी लिखीं। मन की मौज के
अनुसार कभी कभी ये एक ही विषय के वर्णन में दोनों बोलियों के पद्य रख देते
थे। खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों में ये बराबर कविता करते रहे। 'ऊजड़ ग्राम'
(डेजटर्ेड विलेज) इन्होंने ब्रजभाषा में ही लिखा। अंग्रेजी और संस्कृत
दोनों के काव्य साहित्य का अच्छा परिचय रखने के कारण हिन्दी कवियों में
पाठकजी की रुचि बहुत ही परिष्कृत थी। शब्दशोधान में तो पाठकजी अद्वितीय थे।
जैसी चलती और रसीली इनकी ब्रजभाषा होती थी, वैसा ही कोमल और मधुर संस्कृत
पदविन्यास भी। ये वास्तव में एक बड़े प्रतिभाशाली, भावुक और सुरुचि सम्पन्न
कवि थे। भद्दापन इनमें न था , न रूप रंग में, न भाषा में, न भाव में, न चाल
में, न भाषण में।
इनकी प्रतिभा बराबर रचना के नए नए मार्ग भी निकाला करती थी। छंद,
पदविन्यास, वाक्यविन्यास आदि के संबंध में नई नई बंदिशें इन्हें खूब सूझा
करती थीं। अपनी रुचि के अनुसार कई नए ढाँचे के छंद इन्होंने निकाले जो पढ़ने
में बहुत ही मधुर लय पर चलते थे। यह छंद देखिए ,
नाना कृपान निज पानि लिए, वपु नील वसन परिधाान किए।
गंभीर घोर अभिमान हिए, छकि पारिजात मधुपान किए
छिन छिन पर जोर मरोर दिखावत, पल पल पर आकृतिकोर झुकावत।
यह मोर नचावत, सोर मचावत, स्वेत स्वेत बगपाँति उड़ावत
नंदन प्रसून मकरंद बिंदु मिश्रित समीर बिनु धाीर चलावत
अंत्यानुप्रासरहित बेठिकाने समाप्त होनेवाले गद्य के से लंबे वाक्यों के
छंद भी (जैसे अंग्रेजी में होते हैं) इन्होंने लिखे हैं। 'सांधय अटन' का यह
छंद देखिए ,
विजन वनप्रांत था; प्रकृतिमुख शांत था;
अटन का समय था, रजनि का उदय था।
प्रसव के काल की लालिमा में लसा।
बाल शशि व्योम की ओर था आ रहा
सद्य उत्फुल्ल अरविंद नभ नील सुवि ,
शाल नभवक्ष पर जा रहा था चढ़ा
विश्वसंचालक परोक्षसंगीतध्वनि की ओर रहस्यपूर्ण संकेत 'स्वर्गीय वीणा' की
इन पंक्तियों में देखिए ,
कहीं पै स्वर्गीय कोई बाला सुमंजु वीणा बजा रही है।
सुरों के संगीत की सी कैसी सुरीली गुंजार आ रही है
कोई पुरंदर की किंकरी है कि या किसी सुर की सुंदरी है।
वियोगतप्ता सी भोगमुक्ता हृदय के उद्गार गा रही है
कभी नई तान प्रेममय है, कभी प्रकोपन, कभी विनय है।
दया है, दाक्षिण्य का उदय है अनेकों बानक बना रही है
भरे गगन में हैं जितने तारे हुए हैं बदमस्त गत पै सारे।
समस्त ब्रह्मांड भर को मानो दो उँगलियों पर नचा रही है
यह कह आए हैं कि 'खड़ी बोली' की पहली पुस्तक 'एकांतवासी योगी' इन्होंने
लावनी या ख्याल के ढंग पर लिखी थी। पीछे 'खड़ी बोली' को ये हिन्दी के
प्रचलित छंदों में लाए। 'श्रांत पथिक' की रचना इन्होंने रोला छंद में की।
इसके आगे भी ये बढ़े, और यह दिखा दिया कि सवैये में भी खड़ी बोली कैसी मधुरता
के साथ ढल सकती है ,
इस भारत में वन पावन तू ही तपस्वियों का तप आश्रम था।
जगतत्व की खोज में लग्न जहाँ ऋषियों ने अभग्न किया श्रम था
तब प्राकृत विश्व का विभ्रम और था, सात्विक जीवन का क्रम था।
महिमा वनवास की थी तब और, प्रभाव पवित्र अनूपम था
पाठकजी कविता के लिए हर एक विषय ले लेते थे। समाजसुधार के वे बड़े आकांक्षी
थे; इससे विधवाओं की वेदना, शिक्षाप्रसार ऐसे ऐसे विषय भी उनकी कलम के नीचे
आया करते थे। विषयों को काव्य का पूरा पूरा स्वरूप देने में चाहे वे सफल न
हुए हों, अभिव्यंजना के वाग्वैचित्रय की ओर उनका ध्यान चाहे न रहा हो,
गंभीर नूतन विचारधारा चाहे उनकी कविताओं के भीतर कम मिलती हो, पर उनकी वाणी
में कुछ ऐसा प्रसाद था कि जो बात उसके द्वारा प्रकट की जाती थी, उसमें
सरसता आ जाती थी। अपने समय के कवियों में प्रकृति का वर्णन पाठकजी ने सबसे
अधिक किया, इससे हिन्दी प्रेमियों में वे प्रकृति के उपासक कहे जाते थे।
यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि उनकी यह उपासना प्रकृति के उन्हीं रूपों
तक परिमित थी जो मनुष्य को सुखदायक और आनंदप्रद होते हैं, या जो भव्य और
सुंदर होते हैं। प्रकृति के सीधे सादे नित्य ऑंखों के सामने आनेवाले देश के
परंपरागत जीवन से संबंध रखनेवाले दृश्यों की मधुरता की ओर उनकी दृष्टि कम
रहती।
पं. श्रीधार पाठक का जन्म संवत् 1916 में और मृत्यु संवत्. 1985 में हुई।
2. पं. अयोध्यासिंहजी उपाधयाय (हरिऔधा) , भारतेंदु के पीछे और द्वितीय
उत्थान के पहले ही हिन्दी के लब्धाप्रतिष्ठ कवि पं. अयोध्यासिंह उपाधयाय
(हरिऔधा) नए विषयों की ओर चल पड़े थे। खड़ी बोली के लिए उन्होंने पहले उर्दू
के छंदों और ठेठ बोली को ही उपयुक्त समझा, क्योंकि उर्दू के छंदों में खड़ी
बोली अच्छी तरह मँज चुकी थी। संवत् 1957 के पहले ही वे बहुत सी फुटकल
रचनाएँ इस उर्दू ढंग पर कर चुके थे। नागरीप्रचारिणी सभा के गृह प्रवेशोत्सव
के समय संवत् 1957 में उन्होंने जो कविता पढ़ी थी, उसके ये चरण मुझे अब तक
याद हैं ,
चार डग हमने भरे तो क्या किया।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी
मौलवी ऐसा न होगा एक भी।
खूब उर्दू जो न होवे जानता
इसके उपरांत तो वे बराबर इसी ढंग की कविता करते रहे। जब पं. महावीर प्रसाद
द्विवेदीजी के प्रभाव से खड़ी बोली ने संस्कृत छंदों और संस्कृत की समस्त
पदावली का सहारा लिया, तब उपाधयायजी , जो गद्य में अपनी भाषासंबंधिनी पटुता
उसे दो हदों पर पहुँचा कर दिखा चुके थे , उस शैली की ओर भी बढ़े और संवत्
1971 में उन्होंने अपना 'प्रियप्रवास' नामक बहुत बड़ा काव्य प्रकाशित किया।
नवशिक्षितों के संसर्ग से उपाधयायजी ने लोक संग्रह का भाव अधिक ग्रहण किया
है। उक्त काव्य में श्रीकृष्ण ब्रज के रक्षक नेता के रूप में अंकित किए गए
हैं। खड़ी बोली में इतना बड़ा काव्य अभी तक नहीं निकला है। बड़ी भारी विशेषता
इस काव्य की यह है कि यह सारा संस्कृत के वर्णवृत्तों में है जिसमें अधिक
परिमाण में रचना करना कठिन काम है। उपाधयायजी का संस्कृत पदविन्यास अनेक
उपसर्गों से लदा तथा 'मंजु', 'मंजुल', 'पेशल' आदि से बीच बीच में जटिल
अर्थात् चुना हुआ होता है। द्विवेदीजी और उनके अनुयायी कवि वर्ग की रचनाओं
से उपाधयायजी की रचना इस बात में साफ अलग दिखाई पड़ती है। उपाधयायजी
कोमलकांत पदावली को कविता का सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ समझते हैं। यद्यपि
द्विवेदीजी अपने अनुयायियों के सहित जब इस संस्कृत वृत्त के मार्ग पर बहुत
दूर तक चल चुके थे, तब उपाधयायजी उसपर आए, पर वे बिल्कुल अपने ढंग पर चले।
किसी प्रकार की रचना को हद पर , चाहे उस हद तक जाना अधिकतर लोगों को इष्ट न
हो , पहुँचाकर दिखाने की प्रवृत्ति के अनुसार उपाधयायजी ने अपने इस काव्य
में कई जगह संस्कृत शब्दों की ऐसी लंबी लड़ी बाँधी है कि हिन्दी को 'है',
'था', 'किया', 'दिया' ऐसी दो एक क्रियाओं के भीतर ही सिमट कर रह जाना पड़ा
है। पर सर्वत्र यह बात नहीं है। अधिकतर पदों में बड़े ढंग से हिन्दी अपनी
चाल पर चली चलती दिखाई पड़ती है।
यह काव्य अधिकतर भावव्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है। कृष्ण के चले जाने पर
ब्रज की दशा का वर्णन बहुत अच्छा है। विरह वेदना से क्षुब्ध वचनावली प्रेम
की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना करती हुई बहुत दूर तक चली चलती है। जैसा कि
इसके नाम से प्रकट है, इसकी कथावस्तु एक महाकाव्य क्या अच्छे प्रबंधकाव्य
के लिए भी अपर्याप्त है। अत: प्रबंधकाव्य के सब अवयव इसमें कहाँ आ सकते?
किसी के वियोग में कैसी कैसी बातें मन में उठती हैं और क्या कहकर लोग रोते
हैं, इसका जहाँ तक विस्तार हो सका है, किया गया है। परंपरापालन के लिए जो
दृश्यवर्णन हैं वे किसी बगीचे में लगे हुए पेड़ पौधों के नाम गिनने के समान
हैं। इसी से शायद करील का नाम छूट गया।
दो प्रकार के नमूने उध्दृत करके हम आगे बढ़ते हैं ,
रूपोद्यान प्रफुल्लप्राय कलिका राकेंदुबिंबानना।
तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका क्रीड़ाकलापुत्ताली
शोभावारिधि की अमूल्य मणि सी लावण्यलीलामयी।
श्रीराधा मृदुभाषिणी मृगदृगी माधुर्यसन्मूर्ति थी
धीरे धीरे दिन गत हुआ; पद्मिनीनाथ डूबे।
आयी दोषा, फिर गत हुई, दूसरा वार आया
यों ही बीती बिपुल घटिका औ कई वार बीते।
आया कोई न मधुपुर से औ न गोपाल आए
इस काव्य के उपरांत उपाधयायजी का ध्यान फिर बोलचाल की ओर गया। इस बार उनका
मुहावरों पर अधिक जोर रहा। बोलचाल की भाषा में अनेक फुटकल विषयों पर
उन्होंने कविताएँ रची जिनकी प्रत्येक पंक्ति में कोई न कोई मुहावरा अवश्य
खपाया गया। ऐसी कविताओं का संग्रह 'चोखे चौपदे' (संवत् 1981) में निकला।
पद्यप्रसून (1982) में भाषा दोनों प्रकार की है , बोलचाल की भी और
साहित्यिक भी। मुहावरों के नमूने के लिए 'चोखेचौपदे' का एक पद्य दिया जा
रहा है।
क्यों पले पीस कर किसी को तू?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी
हम रहे चाहते पटाना ही;
पेट तुझसे पटी नहीं मेरी
भाषा के दोनों नमूने ऊपर हैं। यही द्विकलात्मक कला उपाधयायजी की बड़ी
विशेषता है। इससे शब्दभंडार पर इनका विस्तृत अधिकार प्रकट होता है। इनका एक
और बड़ा काव्य है, 'वैदेही वनवास' जिसे ये बहुत दिनों से लिखते चले आ रहे
थे, अब छप रहा है। 1
3. पं. महावीरप्रसाद द्विवेदीजी , इस द्वितीय उत्थान के आरंभकाल में हम पं
महावीरप्रसाद द्विवेदीजी को पद्यरचना की एक प्रणाली के प्रवर्तक के रूप में
पाते हैं। गद्य पर जो शुभ प्रभाव द्विवेदीजी का पड़ा, उसका उल्लेख गद्य के
प्रकरण में हो चुका है। खड़ी बोली के पद्यविधान पर भी आपका पूरा पूरा असर
पड़ा। पहली बात तो यह हुई कि उनके कारण भाषा में बहुत कुछ सफाई आई। बहुत से
कवियों की भाषा शिथिल और अव्यवस्थित होती थी और बहुत से लोग ब्रज और अवधी
आदि का मेल भी कर देते थे। 'सरस्वती' के संपादनकाल में उनकी प्रेरणा से
बहुत से नए लोग खड़ी बोली में कविता करने लगे। उनकी भेजी हुई कविताओं की
भाषा आदि दुरुस्त करके वे 'सरस्वती' में दे दिया करते थे। इस प्रकार के
लगातार संशोधन से धीरे धीरे बहुत से कवियों की भाषा साफ हो गई। उन्हीं
नमूनों पर और लोगों ने भी अपना सुधार किया।
यह तो हुई भाषा परिष्कार की बात। अब उन्होंने पद्यरचना की जो प्रणाली स्थिर
की, उसके संबंध में भी कुछ विचार कर लेना चाहिए। द्विवेदीजी कुछ दिनों तक
बंबई की ओर रहे थे जहाँ मराठी के साहित्य से उनका परिचय हुआ। उसके साहित्य
का प्रभाव उन पर बहुत कुछ पड़ा। मराठी कविता में अधिकतर संस्कृत वृत्तों का
व्यवहार होता है। पदविन्यास भी प्राय: गद्य का सा रहता है। बंग भाषा की सी
'कोमलकांतपदावली' उसमें नहीं पाई जाती। इसी मराठी के नमूने पर द्विवेदीजी
ने हिन्दी में पद्यरचना शुरू की। पहले तो उन्होंने ब्रजभाषा का ही आलंबन
किया। नागरीप्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित 'नागरी तेरी यह दशा'! और रघुवंश
का कुछ आधार लेकर रचित 'अयोध्या का विलाप' नाम की उनकी कविताएँ संस्कृत
वृत्तों में पर ब्रजभाषा में ही लिखी गई थीं, जैसे ,
श्रीयुक्त नागरि निहारि दशा तिहारी।
होवै विषाद मन माहिं अतीव भारी
प्राकार जासु नभमंडल में समाने।
प्राचीर जासq लखि लोकप हू सकाने
जाकी समस्त सुनि संपति की कहानी।
नीचे नवाय सिर देवपुरी लजानी
इधर आधुनिककाल में ब्रजभाषा पद्य के लिए संस्कृत वृत्तों का व्यवहार पहले
पहल स्वर्गीय पं. सरयूप्रसाद मिश्र ने रघुवंश महाकाव्य के अपने 'पद्यबद्ध
भाषानुवाद' में किया था जिसका प्रारंभिक अंश भारतेंदु की 'कविवचनसुधा' में
प्रकाशित हुआ था। पूरा अनुवाद बहुत दिनों पीछे संवत् 1968 में पुस्तकाकार
छपा। द्विवेदीजी ने आगे चलकर ब्रजभाषा एकदम छोड़ दी और खड़ी बोली में ही
काव्यरचना करनेलगे।
मराठी का संस्कार तो था ही, पीछे जान पड़ता है, उनके मन में वड्र्सवर्थ
;ॅवतकेूवतजीद्ध का वह पुराना सिध्दांत भी कुछ जम गया था कि 'गद्य और पद्य
का पदविन्यास एक ही प्रकार का होना चाहिए।' पर यह प्रसिद्ध बात है कि
वड्र्सवर्थ का वह सिध्दांत असंगत सिद्ध हुआ था और वह आप ही अपनी उत्कृष्ट
कविताओं में उसका पालन न कर सका था। द्विवेदीजी ने भी बराबर उक्त सिध्दांत
के अनुकूल रचना नहीं की है। अपनी कवितओं के बीच बीच में सानुप्रास कोमल
पदावली का व्यवहार उन्होंने किया है, जैसे ,
सुरम्यरूपे, रसराशिरंजिते,
विचित्र वर्णाभरणे! कहाँ गयी?
कवींद्रकांते, कविते! अहो कहाँ?
मांगल्यमूलमय वारिद वारि वृष्टि
पर उनका जोर बराबर इस बात पर रहता था कि कविता बोलचाल की भाषा में होनी
चाहिए। बोलचाल से उनका मतलब ठेठ या हिंदुस्तानी का नहीं रहता था, गद्य की
व्यावहारिक भाषा का रहता था। परिणाम यह हुआ कि उनकी भाषा बहुत अधिक गद्यवत्
;च्तवेंपबद्ध हो गई। पर जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है 'गिरा अर्थ जल
बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न' , भाषा से विचार अलग नहीं रह सकता। उनकी
अधिकतर कविताएँ इतिवृत्तात्मक ;डंजजमत व िंबिजद्ध हुईं। उनमें वह
लाक्षणिकता, वह चित्रमयी भावना और वक्रता बहुत कम आ पाई जो रस संचार की गति
को तीव्र और मन को आकर्षित करती है। 'यथा', 'सर्वथा', 'तथैव' ऐसे शब्दों के
प्रयोग ने उनकी भाषा को और भी अधिक गद्य का स्वरूप दे दिया।
यद्यपि उन्होंने संस्कृतवृत्तों का व्यवहार अधिक किया है, पर हिन्दी के कुछ
चलते छंदों में भी उन्होंने बहुत सी कविताएँ (जैसे विधिविडंबना) रची हैं
जिनमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी कम है। अपना 'कुमारसंभवसार' उन्होंने
इसी ढंग पर लिखा है। कुमारसंभव का यह अनुवाद बहुत ही उत्तम हुआ है। इसमें
मूल के भाव बड़ी सफाई से आए हैं। संस्कृत के अनुवादों में मूल का भाव लाने
के प्रयत्न में भाषा में प्राय: जटिलता आ जाया करती है। पर इसमें यह बात
जरा भी नहीं है। ऐसा साफ सुथरा दूसरा अनुवाद जो मैंने देखा है, पं.
केशवप्रसादजीमिश्र का 'मेघदूत' है। द्विवेदीजी की रचनाओं के दो नमूने देकर
हम आगे बढ़ते हैं ,
आरोग्ययुक्त बलयुक्त सुपुष्ट गात,
ऐसा जहाँ युवक एक न दृष्टि आता।
सारी प्रजा निपढ़ दीन दुखी जहाँ है,
कर्तव्य क्या न कुछ भी तुझको वहाँ है?
इंह्रासन के इच्छुक किसने करके तप अतिशय भारी,
की उत्पन्न असूया तुझमें, मुझसे कहो कथा सारी।
मेरा यह अनिवार्य शरासन पाँच कुसुम सायक धारी;
अभी बना लेवे तत्क्षण ही उसको निज आज्ञाकारी
द्विवेदीजी की कविताओं का संग्रह 'काव्यमंजूषा' नाम की पुस्तक में हुआ है।
उनकी कविताओं के दूसरे संग्रह का नाम 'सुमन' है।
द्विवेदीजी के प्रभाव और प्रोत्साहन से हिन्दी के कई अच्छे अच्छे कवि निकले
जिनमें बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पं. रामचरित उपाधयाय और पं. लोचनप्रसाद
पांडेय मुख्य हैं।
4. बाबू मैथिलीशरण गुप्त , 'सरस्वती' का संपादन द्विवेदीजी के हाथ में आने
के प्राय: 3 वर्ष पीछे (संवत् 1963 से) बाबू मैथिलीशरण गुप्त की खड़ी बोली
की कविताएँ उक्त पत्रिका में निकलने लगीं और उनके संपादनकाल तक बराबर
निकलती रहीं। संवत् 1966 में उनका 'रंग में भंग' नामक एक छोटा सा
प्रबंधकाव्य प्रकाशित हुआ जिसकी रचना चित्तौड़ और बूँदी के राजघरानों से
संबंध रखनेवाली राजपूती आन की एक कथा को लेकर हुई थी। तब से गुप्तजी का
ध्यान प्रबंधकाव्यों की ओर बराबर रहा और वे बीच बीच में छोटे या बड़े
प्रबंधकाव्य लिखते रहे। गुप्तजी की ओर पहले पहल हिन्दी प्रेमियों का सबसे
अधिक ध्यान खींचनेवाली उनकी 'भारत भारती' निकली। इसमें 'मुसद्दस हाली' के
ढंग पर भारतीयों की या हिंदुओं की भूत और वर्तमान दशाओं की विषमता दिखाई गई
है; भविष्यनिरूपण का प्रयत्न नहीं है। यद्यपि काव्य की विशिष्ट पदावली,
रसात्मक चित्रण, वाग्वैचित्य इत्यादि का विधान इसमें न था, पर बीच में
मार्मिक तथ्यों का समावेश बहुत साफ और सीधी सादी भाषा में होने से यह
पुस्तक स्वदेश की ममता से पूर्ण नवयुवकों को बहुत प्रिय हुई। प्रस्तुत विषय
को काव्य का पूर्ण स्वरूप न दे सकने पर भी इसने हिन्दी कविता के लिए खड़ी
बोली की उपयुक्तता अच्छी तरह सिद्ध कर दी। इसीढंग पर बहुत दिनों पीछे
इन्होंने 'हिंदू' लिखा। 'केशों की कथा', 'स्वर्गसहोदर' इत्यादिबहुत सी
फुटकल रचनाएँ इनकी 'सरस्वती' में निकली हैं, जो 'मंगल घट' में संगृहीतहैं।
प्र्रबंधाकाव्यों की परंपरा इन्होंने बराबर जारी रखी। अब तक ये नौ दस छोटे
बड़े प्रबंधकाव्य लिख चुके हैं जिनके नाम हैं , रंग में भंग, जयद्रथ वधा,
विकट भट, प्लासी का युद्ध , गुरुकुल, किसान, पंचवटी, सिद्ध राज, साकेत,
यशोधारा। अंतिम दो बड़े काव्य हैं। 'विकट भट' में जोधपुर के एक राजपूत सरदार
की तीन पीढ़ियों तक चलनेवाली बात की टेक की अद्भुत पराक्रमपूर्ण कथा है।
'गुरुकुल' में सिख गुरुओं के महत्व का वर्णन है। छोटे काव्यों में 'जयद्रथ
वधा' और 'पंचवटी' का स्मरण अधिकतर लोगों को है। गुप्तजी के छोटे काव्यों की
प्रसंगयोजना भी प्रभावशालिनी है और भाषा भी बहुत साफ सुथरी है।
'वैतालिक' की रचना उस समय हुई जब गुप्तजी की प्रवृत्ति खड़ी बोली में गीत
काव्य प्रस्तुत करने की ओर भी हो गई।
यद्यपि गुप्तजी जगत और जीवन के व्यक्त क्षेत्र में ही महत्व और सौंदर्य का
दर्शन करने वाले तथा अपने राम को लोक के बीच अधिाष्ठित देखनेवाले कवि हैं,
पर तृतीय उत्थान में 'छायावाद' के नाम से रहस्यात्मक कविताओं का कलरव सुन
इन्होंने भी कुछ गीत रहस्यवादियों के स्वर में गाए जो 'झंकार' में संगृहीत
हैं। पर असीम के प्रति उत्कंठा और लंबी चौड़ी वेदना का विचित्र प्रदर्शन
गुप्तजी की अंत:प्रेरित प्रवृत्ति के अंतर्गत नहीं। काव्य का एक मार्ग चलता
देख ये उधर भी जा पड़े।
'साकेत' और 'यशोधारा' इनके दो बड़े प्रबंध हैं। दोनों में उनके काव्यत्व का
तो पूरा विकास दिखाई पड़ता है, पर प्रबंधत्व की कमी है। बात यह है कि इनकी
रचना उस समय हुई जब गुप्तजी की प्रवृत्ति गीतकाव्य या नए ढंग के प्रगीत
मुक्तकों (लिरिक्स) की ओर हो चुकी थी। 'साकेत' की रचना तो मुख्यत: इस
उद्देश्य से हुई कि उर्मिला 'काव्य' की उपेक्षिता न रह जाए। पूरे दो सर्ग
(9 और 10) उसके वियोगवर्णन में खप गए हैं। इस वियोगवण्र् ान के भीतर कवि ने
पुरानी पद्ध ति के आलंकारिक चमत्कारपूर्ण पद्य तथा आजकल की नई रंगत की
वेदना लाक्षणिक वैचित्रयवाले गीत दोनों रखे हैं। काव्य का नाम 'साकेत' रखा
गया है जिसका तात्पर्य यह है कि इसमें अयोध्या में होनेवाली घटनाओं और
परिस्थितियों का ही वर्णन प्रधान है। राम के अभिषेक की तैयारी से लेकर
चित्रकूट में राम भरत मिलन तक की कथा आठ सर्गों तक चलती है। उसके उपरांत दो
सर्गों तक उर्मिला की वियोगावस्था की नाना अंतर्वृत्तिायों का विस्तार है
जिसके बीच बीच में अत्यंत उच्च भावों की व्यंजना है। सूरदास की गोपियाँ
वियोग में कहती हैं कि ,
मधुबन! तुम कत रहत हरे?
विरहवियोग स्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?
पर उर्मिला कहती है ,
रह चिर दिन तू हरी भरी,
बढ़, सुख से बढ़, सृष्टि सुंदरी!
प्रेम के शुभ प्रभाव से उर्मिला के हृदय की उदारता का और भी प्रसार हो गया
है। वियोग की दशा में प्रिय लक्ष्मण के गौरव की भावना उसे सँभाले हुए हैं।
उन्माद की अवस्था में जब लक्ष्मण उसे सामने खड़े जान पड़ते हैं तब उस भावना
को गहरा आघात पहुँचता है और व्याकुल होकर कहने लगती है ,
प्रभु नहीं फिरे, क्या तुम्हीं फिरे?
हम गिरे, अहो! तो गिरे, गिरे!
दंडकारण्य से लेकर लंका तक की घटनाएँ शत्रुघ्न के मुँह से मांडवी और भरत के
सामने पूरी रसात्मकता के साथ वर्णन कराई गई हैं। रामायण के भिन्न भिन्न
पात्रों के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूपों को विकृत न करके उनके भीतर ही
आधुनिक आंदोलनों की भावनाएँ, जैसे , किसानों और श्रमजीवियों के साथ
सहानुभूति, युद्ध प्रथा की मीमांसा, राजव्यवस्था में प्रजा का अधिकार और
सत्याग्रह, मनुष्यत्व , कौशल के साथ झलकाई गई है। किसी पौराणिक या ऐतिहासिक
पात्र के परंपरा से प्रतिष्ठित स्वरूप को मनमाने ढंग पर विकृत करना हम भारी
अनाड़ीपन समझते हैं।
'यशोधारा' की रचना नाटकीय ढंग पर है। उसमें भगवान बुद्ध के चरित्र से संबंध
रखनेवाले पात्रों के उच्च और सुंदर भावों की व्यंजना और परस्पर कथोपकथन है,
जिसमें कहीं कहीं गद्य भी है। भावव्यंजना प्राय: गीतों में है।
'द्वापर' में यशोधारा, राधा, नारद, कंस, कुब्जा इत्यादि कुछ विशिष्ट
व्यक्तियों की मनोवृत्तियों का अलग अलग मार्मिक चित्रण है। नारद और कंस की
मनोवृत्तियों के स्वरूप तो बहुत ही विशद और समन्वित रूप में सामने रखे गए
हैं।
गुप्तजी ने 'अनघ', 'तिलोत्तामा', 'चंद्रहास' नामक तीन और छोटे छोटे
पद्यबद्ध रूपक भी लिखे हैं। 'अनघ' में कवि ने लोकव्यवस्था के संबंध में उठी
हुई आधुनिक भावनाओं और विचारों का अवस्थान , प्राचीनकाल के भीतर ले जाकर
किया है। वर्तमान किसान आंदोलन का रंग प्रधान है।
गुप्तजी की प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात्
उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्यप्रणालियों को ग्रहण करते चलने की
शक्ति। इस दृष्टि से हिन्दीभाषी जनता के प्रतिनिधि कवि ये निस्संदेह कहे जा
सकते हैं। 'भारतेंदु' के समय से स्वदेश प्रेम की भावना जिस रूप में चली आ
रही थी उसका विकास 'भारतभारती' में मिलता है। इधर के राजनीतिक आंदोलनों ने
जो रूप धारण किया उसका पूरा आभास पिछली रचनाओं में मिलता है। सत्याग्रह,
अहिंसा, मनुष्यत्ववाद, विश्वप्रेम, किसानों और श्रमजीवियों के प्रति प्रेम
और सम्मान, सबकी झलक हम पाते हैं।
गुप्तजी की रचनाओं के भीतर तीन अवस्थाएँ लक्षित होती हैं। प्रथम अवस्था
भाषा की सफाई की है जिसमें खड़ी बोली के पद्यों की मसृणबंधा रचना हमारे
सामने आती है। 'सरस्वती' में प्रकाशित अधिकांश कविताएँ तथा 'भारतभारती' इस
अवस्था की रचना के उदाहरण हैं। ये रचनाएँ काव्यप्रेमियों को कुछ गद्यवत,
रूखी और इतिवृत्तात्मक लगती थीं। इनमें सरस और कोमल पदावली की कमी भी खटकती
थी। बात यह है कि यह खड़ी बोली के परिमार्जन का काल था। इसके अनंतर गुप्तजी
ने बंगभाषा की कविताओं का अनुशीलन तथा मधुसूदनदत्ता रचित ब्रजांगना,
मेघनादवधा आदि का अनुवाद भी किया। इससे इनकी पदावली में बहुत कुछ सरसता और
कोमलता आई, यद्यपि कुछ ऊबड़खाबड़ और अव्यवहृत संस्कृत शब्दों की ठोकरें कहीं
कहीं विशेषत: छोटे छोटे छंदों के चरणांत में, अब भी लगती हैं। 'भारतभारती'
और 'वैतालिक' के बीच की रचनाएँ इस दूसरी अवस्था के उदाहरण में ली जा सकती
हैं। उसके उपरांत 'छायावाद' कहीं जानेवाली कविताओं का चलन होता है और
गुप्तजी का कुछ झुकाव प्रगीत मुक्तकों (लिरिक्स) और अभिव्यंजना के लाक्षणिक
वैचित्रय की ओर भी हो जाता है। इस झुकाव का आभास 'साकेत' और 'यशोधारा' में
भी पाया जाता है। यह तीसरी अवस्था है।
गुप्तजी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि हैं, प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने
वाले अथवा मद में झूमने (या झीमने) वाले कवि नहीं। सब प्रकार की उच्चता से
प्रभावित होनेवाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और
नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें हैं। इनकी रचना के कई प्रकार के नमूने
नीचे दिए जाते हैं ,
क्षत्रिय! सुनो अब तो कुयश की कालिमा को मेट दो।
निज देश को जीवन सहित तन मन तथा धान भेंट दो
वैश्यो! सुनो व्यापार सारा मिट चुका है देश का।
सब धान विदेशी हर रहे हैं, पार है क्या क्लेश का?
(भारतभारती)
थे, हो और रहोगे जब तुम, थी, हूँ और सदैव रहूँगी।
कल निर्मल जल की धारा सी, आज यहाँ, कल वहाँ बहूँगी
दूती! बैठी हूँ सजकर मैं।
ले चल शीघ्र मिलूँ प्रियतम से धाम धरा धन सब तजकरमैं
अच्छी ऑंखमिचौनी खेली!
बार बार तुम छिपो और मैं खोजूँ तुम्हें अकेली
निकल रही है उर से आह।
ताक रहे सब तेरी राह
चातक खड़ा चोंच खोले है, संपुट खोले सीप खड़ी।
मैं अपना घट लिए खड़ा हूँ, अपनी अपनी हमें पड़ी
(झंकार)
पहले ऑंखों में थे, मानस में कूद मग्न प्रिय अब थे।
छींटे वही उड़े थे, बड़े बड़े अश्रु वे कब थे?
सखि, नील नभस्सर से उतरा, यह हंस अहा! तरता तरता।
अब तारकमौक्तिक, शेष नहीं, निकला जिनको चरताचरता
अपने हिम बिंदु बचे तब भी, चलता उनको धारता धारता।
गड़ जायँ न कंटक भूतल के, कर डाल रहा डरता डरता
आकाशजाल सब ओर तना, रवि तंतुवाय है आज बना;
करता है पद प्रहार वही, मक्खी सी भिन्ना रही मही।
घटना हो चाहे घटा, उठ नीचे से नित्य।
आती है ऊपर, सखी! छा कर चंद्रादित्य
इंद्रवधाू आने लगी क्यों निज स्वर्ग बिहाय।
नन्हीं दूबों का हृदय निकल पड़ा यह, हाय
इस उत्पल से काय में, हाय! उपल से प्राण।
रहने दे बक ध्यान यह, पावें ये दृग त्रााण
वेदने! तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी
अरी वियोगसमाधि अनोखी, तू क्या ठीक ठनी।
अपने को, प्रिय को, जगती को देख्रू खिंची तनी
हा! मेरे कुंजों का कूजन रोकर, निराश होकर सोया।
वह चंद्रोदय उसको उड़ा रहा है धावल वसन सा धाोया
सखि, निरख नदी की धारा।
ढलमल ढलमल चंचल अंचल, झलमल झलमल तारा।
निर्मल जल अंतस्तल भरके, उछल उछल कर छल छल करके,
थल थल तर के, कल कल धार के बिखराती है पारा
ओ मेरे मानस के हास! खिल सहस्रदल, सरस सुवास।
सजनि, रोता है मेरा गान।
प्रिय तक नहीं पहुँच पाती है उसकी कोई तान!
बस इसी प्रिय काननकुंज में , मिलन भाषण के स्मृतिपुंज में ,
अभय छोड़ मुझे तुम दीजियो, हसन रोदन से न पसीजियो।
(साकेत)
5. पं. रामचरित उपाधयाय , स्वर्गीय पं. रामचरित उपाधयाय का जन्म संवत् 1929
में गाजीपुर में हुआ था, पर पिछले दिनों में वह आजमगढ़ के पास एक गाँव में
रहने लगे थे। कुछ वर्ष हुए उनका देहांत हो गया। वे संस्कृत के अच्छे पंडित
थे और पहले पुराने ढंग की हिन्दी कविता की ओर उनकी रुचि थी। पीछे 'सरस्वती'
में जब खड़ी बोली की कविताएँ निकलने लगीं तब वे नए ढंग की रचना की ओर बढ़े और
द्विवेदीजी के प्रोत्साहन से बराबर उक्त पत्रिका में अपनी रचनाएँ भेजते
रहे। 'राष्ट्रभारती', 'देवदूत', 'देवसभा', 'देवी द्रौपदी', 'भारत भक्ति',
'विचित्र विवाह' इत्यादि अनेक कविताएँ उन्होंने खड़ी बोली में लिखी हैं।
छोटी कविताएँ अधिकतर विदग्धा भाषण के रूप में हैं। 'रामचरितचिंतामण्0श्निा'
नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य भी उन्होंने लिखा है जिसके कई एक प्रसंग बहुत
सुंदर बन पड़े हैं, जैसे , अंगद रावण संवाद। भाषा उनकी साफ होती थी और
वैदग्ध्य के साथ चलती थी। अंगद रावण संवाद की पंक्तियाँ देखिए ,
कुशल से रहना यदि है तुम्हें, दनुज! तो फिर गर्व न कीजिए।
शरण में गिरिए, रघुनाथ के; निबल के बल केवल राम हैं
सुन कपे! यम, इंद्र कुबेर की न हिलती रसना मम सामने।
तदपि आज मुझे करना पड़ा मनुज सेवक से बकवाद भी।
यदि कपे! मम राक्षस राज का स्तवन है तुझसे न किया गया;
कुछ नहीं डर है, पर क्यों वृथा निलज! मानव मान बढ़ा रहा?
6. पं. गिरिधर शर्मा नवरत्न , दूसरे संस्कृत के विद्वान, जिनकी कविताएँ
'सरस्वती' में बराबर छपती रहीं झालरापाटन के पं. गिरिधर शर्मा नवरत्न हैं।
'सरस्वती' के अतिरिक्त हिन्दी के और पत्रों तथा पत्रिकाओं में भी ये अपनी
कविताएँ भेजते रहे। राजपूताने से निकलने वाले 'विद्याभास्कर' नामक एक पत्र
का संपादन भी इन्होंने कुछ दिन किया था। मालवा और राजपूताने में हिन्दी
साहित्य के प्रचार में इन्होंने बड़ा काम किया है। नवरत्नजी संस्कृत के भी
अच्छे कवि हैं। गोल्डस्मिथ के (हरमिट) 'एकांतवासी योगी' का इन्होंने
संस्कृत श्लोकों में अनुवाद किया है। हिन्दी में भी इनकी रचनाएँ कम नहीं।
कुछ पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त इन्होंने कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया
है। रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' का हिन्दी पद्यों में इनका अनुवाद बहुत
पहले निकला था। माघ के 'शिशुपालवधा' के दो सर्गों का अनुवाद 'हिन्दी माघ'
के नाम से उन्होंने संवत् 1985 में किया था। पहले ये ब्रजभाषा के कवित्त
आदि रचते थे जिनमें कहीं कहीं खड़ी बोली का भी आभास रहता था। शुद्ध खड़ी बोली
के भी कुछ कवित्त इनके मिलते हैं। 'सरस्वती' में प्रकाशित इनकी कविताएँ
अधिकतर इतिवृत्तात्मक या गद्यवत हैं, जैसे ,
मैं जो नया ग्रंथ विलोकता हूँ, भाता मुझे सो नव मित्र सा है।
देखूँ उसे मैं नित बार बार, मानो मिला मित्र मुझे पुराना
'ब्रह्मन तजो पुस्तक प्रेम आप, देता अभी हूँ यह राज्य सारा'।
कहे मुझे यदि यों चक्रवर्ती, 'ऐसा न राजन्! कहिए' कहूँ मैं
7. पं. लोचन प्रसाद पांडेय , पांडेयजी बहुत छोटी अवस्था से कविता करने लगे
थे। संवत् 1962 से इनकी कविताएँ 'सरस्वती' तथा और मासिक पत्रिकाओं में
निकलने लगी थीं। इनकी रचनाएँ कई ढंग की हैं , कथाप्रबंध के रूप में और
फुटकल प्रसंग के रूप में भी। चित्तौड़ के भीमसिंह के अपूर्व स्वत्वत्याग की
कथा नंददास की रासपंचाध्यायी के ढंग पर इन्होंने लिखी है। 'मृगी दुखमोचन'
में इन्होंने खड़ी बोली के सवैयों में एक मृगी की अत्यंत दारुण परिस्थिति का
वर्णन सरस भाषा में किया है जिससे पशुओं तक पहुँचने वाली इनकी व्यापक और
सर्वभूत दयापूर्ण काव्यदृष्टि का पता चलता है। इनका हृदय कहीं कहीं पेड़
पौधों तक की दशा का मार्मिक अनुभव करता पाया जाता है। यह भावुकता इनकी अपनी
है। भाषा कीगद्यवत सरल, सीधी गति उस रचना प्रवृत्ति का पता देती है जो
द्विवेदीजी के प्रभाव से उत्पन्न हुई थी। पर इनकी रचनाओं में खड़ी बोली का
वैसा स्वच्छ और निखरा रूप नहींमिलता जैसा गुप्तजी की उस समय की रचनाओं में
मिलता है, कुछ पंक्तियाँ उध्दृत हैं ,
चढ़ जाते पहाड़ों में जा के कभी, कभी झाड़ों के नीचे फिरें बिचरें।
कभी कोमल पत्तिायाँ खाया करें, कभी मीठी हरी हरी घास चरें
सरिता जल में प्रतिबिंब लखें निज, शुद्ध कहीं जलपान करें।
कहीं मुग्धा हो झर्झर निर्झर से तरु कुंज में जा तप ताप हरें
रहती जहाँ शाल रसाल तमाल के पादपों को अति छाया घनी।
चर के तृण आते, थके वहाँ बैठते थे मृग औ उसकी घरनी
पगुराते हुए दृग मूँदे हुए वे मिटाते थकावट थे अपनी।
खुर से कभी कान खुजाते, कभी सिर सींग पै धारते थे टहनी
(मृगीदुखमोचन)
सुमन विटप वल्ली काल की क्रूरता से।
झुलस जब रही थी ग्रीष्म की उग्रता से
उस कुसमय में हा! भाग्य आकाश तेरा।
अयि नव लतिके! था घोर आपत्तिा घेरा।
अब तब बुझता था जीवनालोक तेरा।
यह लख उर होता दुख से दग्धा मेरा
इन प्रसिद्ध कवियों के अतिरिक्त और न जाने कितने कवियों ने खड़ी बोली में
फुटकल कविताएँ लिखीं जिनपर द्विवेदीजी का प्रभाव स्पष्ट झलकता था। ऐसी
कविताओं से मासिक पत्रिकाएँ भरी रहती थीं। जो कविता को अपने से दूर की
वस्तु समझते थे वे भी गद्य में चलनेवाली भाषा को पद्यबद्ध करने का अभ्यास
करने लगे। उनकी रचनाएँ बराबर प्रकाशित होने लगीं। उनके संबंध में यह स्पष्ट
समझ रखना चाहिए कि वे अधिकतर इतिवृत्तात्मक गद्य निबंध के रूप में होती
थीं। फल इसका यह हुआ कि काव्यप्रेमियों को उसमें काव्यत्व नहीं दिखाई पड़ता
था और वे खड़ी बोली की अधिकांश कविता को 'तुकबंदी' मात्र समझने लगे थे। आगे
चलकर तृतीय उत्थान में इस परिस्थिति के विरुद्ध गहरा प्रतिवर्तन (रिएक्शन)
हुआ।
यहाँ तक तो उन कवियों का उल्लेख हुआ जिन्होंने द्विवेदीजी के प्रोत्साहन से
अथवा उनके आदर्श के अनुकूल रचनाएँ कीं। पर इस द्वितीय उत्थान के भीतर अनेक
ऐसे कवि भी बराबर अपनी वाग्धारा बहाते रहे जो अपना स्वतंत्र मार्ग पहले से
निकाल चुके थे और जिनपर द्विवेदीजी का कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता।
द्विवेदीमंडल के बाहर की
काव्यभूमि
द्विवेदीजी के प्रभाव से हिन्दी काव्य ने जो स्वरूप प्राप्त किया उसके
अतिरिक्त और अनेक रूपों में भी भिन्न भिन्न कवियों की काव्यधारा चलती रही।
कई एक बहुत अच्छे कवि अपने अपने ढंग पर सरस और प्रभावपूर्ण कविता करते रहे
जिनमें मुख्य राय देवी प्रसाद 'पूर्ण', पं. नाथूरामशंकर शर्मा, पं.
गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही', पं. सत्यनारायण कविरत्न, लाला भगवानदीन, पं.
रामनरेश त्रिपाठी, पं. रूपनारायण पांडेयहैं।
इन कवियों में से अधिकांश तो दोरंगी कवि थे, जो ब्रजभाषा में तो श्रृंगार,
वीर, भक्ति आदि की पुरानी परिपाटी की कविता कवित्त-सवैयों या गेय पदों में
करते आते थे और खड़ी बोली में नूतन विषयों को लेकर चलते थे। बात यह थी कि
खड़ी बोली का प्रचार बराबर बढ़ता दिखाई पड़ता था और काव्य के प्रवाह के लिए
कुछ नई नई भूमियाँ भी दिखाई पड़ती थीं। देशदशा, समाजदशा, स्वदेशप्रेम,
आचरणसंबंधी उपदेश आदि ही तक नई धारा की कविता न रहकर जीवन के कुछ और पक्षों
की ओर भी बढ़ी, पर गहराई के साथ नहीं। त्याग, वीरता, उदारता, सहिष्णुता
इत्यादि के अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंग पद्यबद्ध हुए जिनके बीच बीच
में जन्मभूमि प्रेम, स्वजाति गौरव आत्मसम्मान की व्यंजना करने वाले जोशीले
भाषण रखे गए। जीवन की गूढ़, मार्मिक या रमणीय प्रवृत्ति नहीं दिखाई पड़ी। पं.
रामनरेश त्रिपाठी ने कुछ ध्यान कल्पित प्रबंध की ओर दिया।
दार्शनिकता का पुट राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' की रचनाओं में कहीं कहीं दिखाई
पड़ता है, पर किसी दार्शनिक तथ्य को हृदयग्राह्य रसात्मक रूप देने का प्रयास
उनमें भी नहीं पाया जाता। उनके 'वसंतवियोग' में भारतदशासूचक प्राकृतिक
विभूति के नाना चित्रों के बीच बीच में कुछ दार्शनिक तत्व रखे गए हैं और
अंत में आकाशवाणी द्वारा भारत के कल्याण के लिए कर्मयोग और भक्ति का उपदेश
दिलाया गया है। प्रकृतिवर्णन की ओर हमारा काव्य कुछ अधिक अग्रसर हुआ पर
प्राय: वहीं तक रहा जहाँ तक उसका संबंध मनुष्य के सुख सौंदर्य की भावना से
है। प्रकृति के जिन सामान्य रूपों के बीच नरजीवन का विकास हुआ है, जिन
रूपों से हम बराबर घिरे रहते आए हैं उनके प्रति वह राग या ममता न व्यक्त
हुई जो चिर सहचरों के प्रति स्वभावत: हुआ करती है। प्रकृति के प्राय: वे ही
चटकीले भड़कीले रूप लिए गए जो सजावट के काम के समझे गए। सारांश यह कि जगत और
जीवन के नानारूपों और तथ्यों के बीच हमारे हृदय का प्रसार करने में वाणी
वैसी तत्पर न दिखाई पड़ी।
8. राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' , पूर्णजी का उल्लेख 'पुरानी धारा' के भीतर हो
चुका है। वे ब्रजभाषा काव्य परंपरा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे और जब तक जीवित
रहे, अपने 'रसिक समाज' द्वारा उस परंपरा की पूरी चहल पहल बनाए रहे। उक्त
समाज की ओर से 'रसिक वाटिका' नाम की एक पत्रिका निकली थी जिसमें उस समय के
प्राय: सब व्र्रजभाषा कवियों की सुंदर रचनाएँ छपती थीं। जब संवत् 1977 में
पूर्णजी का देहावसान हुआ उस समय उक्त समाज निरवलंब सा हो गया, और ,
रसिक समाजी ह्वै चकोर चहुँ ओर हेरैं,
कविता को पूरन कलानिधि कितै गयो। (रतनेश)
पूर्णजी सनातनधर्म के बड़े उत्साही अनुयायी तथा अध्ययनशील व्यक्ति थे।
उपनिषद् और वेदांत में उनकी अच्छी गति थी। सभा समाजों के प्रति उनका बहुत
उत्साह रहता था और उसके अधिावेशनों में वे अवश्य कोई न कोई कविता पढ़ते थे।
देश में चलनेवाले आंदोलनों (जैसे , स्वदेशी) को भी उनकी वाणी प्रतिध्वनित
करती थी। भारतेंदु, प्रेमघन आदि प्रथम उत्थान के कवियों के समान पूर्णजी
में भी देशभक्ति और राजभक्ति का समन्वय पाया जाता है। बात यह है कि उस समय
तक देश के राजनीतिक प्रयत्नों में अवरोधा या विरोध का बल नहीं आया था और
लोगों की पूरी तरह धाड़क नहीं खुली थी। अत: उनकी रचना में यदि एक ओर
'स्वदेशी' पर देशभक्तिपूर्ण पद्य मिलें और दूसरी ओर सन् 1911 वाले दिल्ली
दरबार के ठाटबाट का वर्णन, तो आश्चर्य न करना चाहिए।
प्रथम उत्थान के कवियों के समान पूर्णजी पहले नूतन विषयाेंे की कविता भी
ब्रजभाषा में करते थे, जैसे ,
विगत आलस की रजनी भई । रुचिर उद्यम की द्युति छै गई
उदित सूरज है नव भाग को । अरुन रंग भये अनुराग को
तजि बिछौनन को अब भागिए । भरत खंड प्रजागण जागिए
इस प्रकार 'संग्रामनिंदा' आदि अनेक विषयों पर उनकी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही
हैं। पीछे खड़ी बोली की कविता का प्रचार बढ़ने पर बहुत सी रचना उन्होंने खड़ी
बोली में भी की, जैसे , 'अमलतास', 'वसंतवियोग', 'स्वदेशी कुंडल', 'नए सन्
(1910) का स्वागत', 'नवीन संवत्सर (1967) का स्वागत' इत्यादि। 'स्वदेशी',
'देशोध्दार' आदि पर उनकी अधिकांश रचनाएँ इतिवृत्तात्मक पद्यों के रूप में
हैं। 'वसंतवियोग' बहुत बड़ी कविता है जिसमें कल्पना अधिक सचेष्ट मिलती है।
उसमें भारतभूमि की कल्पना एक उद्यान के रूप में की गई है। प्राचीनकाल में
यह उद्यान सत्वगुणप्रधान तथा प्रकृति की सारी विभूतियों से सम्पन्न था और
इसके माली देवतुल्य थे। पीछे मालियों के प्रमाद और अनैक्य से उद्यान उजड़ने
लगता है। यद्यपि कुछ यशस्वी महापुरुष (विक्रमादित्य ऐसे) कुछ काल के लिए
उसे सँभालते दिखाई पड़ते हैं, पर उसकी दशा गिरती ही जाती है। अंत में उसके
माली साधना और तपस्या के लिए कैलास मानसरोवर की ओर जाते हैं जहाँ आकाशवाणी
होती है कि विक्रम की बीसवीं शताब्दी में जब 'पच्छिमी शासन' होगा तब उन्नति
का आयोजन होगा। 'अमलतास' नाम की छोटी सी कविता में कवि ने अपने प्रकृति
निरीक्षण का भी परिचय दिया है। ग्रीष्म में जब वनस्थली के सारे पेड़ पौधो
झुलसे से रहते हैं और कहीं प्रफुल्लता नहीं दिखाई देती है, उस समय अमलतास
चारों ओर फूलकर अपनी पीतप्रभा फैला देता है। इससे कवि भक्ति के महत्व का
संकेत ग्रहण करता है ,
देख तव वैभव, द्रुमकुल संत! बिचारा उसका सुखद निदान।
करे जो विषम काल को मंद, गया उस सामग्री पर ध्यान
रँगा निज प्रभु ऋतुपति के रंग, द्रुमों में अमलतास तूभक्त।
इसी कारण निदाघ प्रतिकूल, दहन में तेरे रहा अशक्त
पूर्णजी की कविताओं का संग्रह 'पूर्ण संग्रह' के नाम से प्रकाशित हो
चुकाहै। उनकी खड़ी बोली की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं ,
नंदन वन का सुना नहीं है किसने नाम।
मिलता है जिसमें देवों को भी आराम
उसके भी वासी सुखरासी, उग्र हुआ यदि उनका भाग।
आकर के इस कुसुमाकर में, करते हैं नंदन रुचि त्याग
है उत्तर में कोट शैल सम तुंग विशाल।
विमल सघन हिमवलित ललित धावलित सब काल
हे नरदक्षिण! इसके दक्षिण-पश्चिम, पूर्व।
है अपार जल से परिपूरित कोश अपूर्व
पवन देवता गगन पंथ से सुघन घटों में लाकरनीर।
सींचा करते हैं यह उपवन करके सदा कृपागंभीर
कर देते हैं बाहर भुनगों का परिवार।
तब करते हैं कीश उदुंबर का आहार
पक्षीगृह विचार तरुगण को नहीं हिलाते हैं गजवृंद।
हंस भृंग हिंसा के भय से छाते नहीं बंद अरविंद
धोनुवत्स जब छक जाते हैं पीकर क्षीर,
तब कुछ दुहते हैं गौओं को चतुर अहीर।
लेते हैं हम मधुकोशों से मधु जो गिरे आप ही आप।
मक्खी तक निदान इस थल की पाती नहीं कभी संताप
(वसंतवियोग)
सरकारी कानून का रखकर पूरा ध्यान।
कर सकते हो देश का सभी तरह कल्यान
सभी तरह कल्यान देश का कर सकते हो।
करके कुछ उद्योग सोग सब हर सकते हो
जो हो तुममें जान, आपदा भारी सारी।
हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी
9. पं. नाथूराम शंकर शर्मा , इनका जन्म संवत् 1916 में और मृत्यु 1989 में
हुई। वे अपना उपनाम 'शंकर' रखते थे और पद्यरचना में अत्यंत सिद्ध हस्त थे।
पं. प्रतापनारायण मिश्र के वे साथियों में थे और उस समय के कवि समाजों में
बराबर कविता पढ़ा करते थे। समस्यापूर्ति वे बड़ी ही सटीक और सुंदर करते थे
जिनसे उनका चारों ओर पदक, पगड़ी, दुशाले आदि से सत्कार होता था। 'कवि व
चित्रकार', 'काव्यसुधाकर', 'रसिक मित्र' आदि पत्रों में उनकी अनूठी
पूर्तियाँ और ब्रजभाषा की कविताएँ बराबर निकला करती थीं। छंदों के सुंदर
नपे तुले विधान के साथ ही उनकी उद्भावनाएँ भी बड़ी अनूठी होती थीं। वियोग का
यह वर्णन पढ़िए ,
शंकर नदी नद नदीसन के नीरन की
भाप बन अंबर तें ऊँची चढ़ जाएगी।
दोनों ध्रुव छोरन लौं पल में पिघल कर
घूम घूम धारनी धुरी सी बढ़ जाएगी
झारेंगे अंगारे ये तरनि तारे तारापति
जारैंगे खमंडल में आग मढ़ जाएगी।
काहू बिधि विधि की बनावट बचैगी नाहिं
जो पै वा वियोगिनी की आह कढ़ जाएगी
पीछे खड़ी बोली का प्रचार होने पर वे उसमें बहुत अच्छी रचना करने लगे। उनकी
पदावली कुछ उद्दंडता लिए होती थी। इसका कारण यह है कि उनका संबंध आर्यसमाज
से रहा जिसमें अंधाविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के उग्र विरोध की
प्रवृत्ति बहुत दिनों तक जागृत रही। उसकी अंतर्वृत्तिा का आभास उनकी रचनाओं
में दिखाई पड़ता है। 'गर्भरंडा रहस्य' नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य उन्होंने
विधवाओं की बुरी परिस्थिति और देवमंदिरों के अनाचार आदि दिखाने के उद्देश्य
से लिखा था। उसका एक पद्य देखिए ,
फैल गया हुड़दंग होलिका की हलचल में।
फूल फूल कर फाग फला महिला मंडलमें
जननी भी तज लाज बनी ब्रजमक्खी सबकी।
पर मैं पिंड छुड़ाय जवनिका में जा दबकी
फबतियाँ और फटकार इनकी कविताओं की एक विशेषता है। फैशन वालों पर कही हुई
'ईश गिरिजा को छोड़ि ईशु गिरिजा में जाय' वाली प्रसिद्ध फबती इन्हीं की है।
पर जहाँ इनकी चित्तवृत्ति दूसरे प्रकार की रही है, वहाँ की उक्तियाँ बड़ी
मनोहर भाषा में है। यह कवित्त ही लीजिए ,
तेज न रहेगा तेजधाारियों का नाम को भी,
मंगल मयंक मंद मंद पड़ जायँगे।
मीन बिन मारे मर जायँगे सरोवर में,
डूब डूब 'शंकर' सरोज सड़ जायँगे
चौंक चौंक चारों ओर चौकड़ी भरेंगे मृग,
खंजन खिलाड़ियों के पंख झड़ जायँगे।
बोलो इन अंखियों की होड़ करने को अब,
विस्व से अड़ीले उपमान अड़ जायँगे
10. पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' , ये हिन्दी के एक बड़े ही भावुक और
सरसहृदय कवि हैं। ये पुरानी और नई दोनों चाल की कविताएँ लिखते हैं। इनकी
बहुत सी कविताएँ 'त्रिाशूल' के नाम से निकली हैं। उर्दू कविता भी इनकी बहुत
ही अच्छी होती है। इनकी पुरानी ढंग की कविताएँ 'रसिकमित्र',
'काव्यसुधानिधि' और 'साहित्यसरोवर' आदि में बराबर निकलती रहीं। पीछे इनकी
प्रवृत्ति खड़ी बोली की ओर हुई। इनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं ,
'प्रेमपचीसी', 'कुसुमांजलि', 'कृषकक्रंदन'। इस मैदान में भी इन्होंने अच्छी
सफलता पाई। एक पद्य नीचे दिया जाता है ,
तू है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ।
तू है महासागर अगम, मैं एक धारा क्षुद्र हूँ
तू है महानद तुल्य तो मैं एक बूँद समान हूँ।
तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ
11. पं. रामनरेश त्रिपाठी , त्रिपाठीजी का नाम भी खड़ी बोली के कवियों में
बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। भाषा की सफाई और कविता के प्रसादगुण पर
इनका बहुत जोर रहता है। काव्यभाषा में लाघव के लिए कुछ कारक चिद्दों और
संयुक्त क्रियाओं के कुछ अंतिम अवयवों को छोड़ना भी (जैसे 'कर रहा है' के
स्थान पर 'कर रहा' या करते हुए' के स्थान पर 'करते') ये ठीक नहीं समझते।
काव्यक्षेत्र में जिस स्वाभाविक स्वच्छंदता (रोमांटिसिज्म) का आभास पं.
श्रीधार पाठक ने दिया था उसके पथ पर चलनेवाले द्वितीय उत्थान में
त्रिपाठीजी ही दिखाई पड़े। 'मिलन', 'पथिक' और 'स्वप्न' नामक इनके तीनों
खंडकाव्यों में इनकी कल्पना ऐसे मर्मपथ पर चलती है जिसपर मनुष्य मात्र का
हृदय स्वभावत: ढलता आया है। ऐतिहासिक या पौराणिक कथाओं के भीतर न बँधाकर
अपनी भावना के अनुकूल स्वच्छंद संचरण के लिए कवि ने नूतन कथाओं की उद्भावना
की है। कल्पित आख्यानों की ओर यह विशेष झुकाव स्वच्छंद मार्ग का अभिलाष
सूचित करता है। इन प्रबंधों में नरजीवन जिन रूपों में ढालकर सामने लाया गया
है, ये मनुष्यमात्र का मर्मस्पर्श करने वाले हैं तथा प्रकृति के स्वच्छंद
और रमणीय प्रसार के बीच अवस्थित होने के कारण शेष सृष्टि से विच्छिन्न नहीं
प्रतीत होते।
स्वदेशभक्ति की जो भावना भारतेंदु के समय से चली आती थी उसे सुंदर कल्पना
द्वारा रमणीय और आकर्षक रूप त्रिपाठीजी ने ही प्रदान किया। त्रिपाठीजी के
उपर्युक्त तीनों काव्य देशभक्ति के भाव से प्रेरित हैं। देशभक्ति का यह भाव
उनके मुख्य पात्रों को जीवन के कई क्षेत्रों में सौंदर्य प्रदान करता दिखाई
पड़ता है , कर्म के क्षेत्र में भी, प्रेम के क्षेत्र में भी। ये पात्र कई
तरफ से देखने में सुंदर लगते हैं। देशभक्ति को रसात्मक रूप त्रिपाठीजी
द्वारा प्राप्त हुआ, इसमें संदेह नहीं।
त्रिपाठीजी ने भारत के प्राय: सब भागों में भ्रमण किया है, इससे इनके
प्रकृतिवर्णन में स्थानगत विशेषताएँ अच्छी तरह आ सकी हैं। इनके 'पथिक' में
दक्षिण भारत के रम्य दृश्यों का बहुत विस्तृत समावेश है। इसी प्रकार इनके
'स्वप्न' में उत्ताराखंडऔर कश्मीर की सुषमा सामने आती है। प्रकृति के किसी
खंड के संश्लिष्ट चित्रण की प्रतिभा इनमें अच्छी है। सुंदर आलंकारिक साम्य
खड़ा करने में भी इनकी कल्पना प्रवृत्त होती है पर झूठे आरोपों द्वारा अपनी
उड़ान दिखाने या वैचित्रय खड़ा करने के लिए नहीं।
'स्वप्न' नामक खंड काव्य तृतीय उत्थान काल के भीतर लिखा गया है जबकि
'छायावाद' नाम की शाखा चल चुकी थी, इससे उस शाखा का भी रंग कहीं कहीं इसके
भीतर झलक मारता है, जैसे ,
प्रिय की सुधिसी ये सरिताएँ, ये कानन कांतार सुसज्जित।
मैं तो नहीं किंतु है मेरा हृदय किसी प्रियतम से परिचित।
जिसके प्रेमपत्र आते हैं प्राय: सुखसंवाद सन्निहित
अत: इस काव्य को लेकर देखने से थोड़ी थोड़ी इनकी सब प्रवृत्तियाँ झलक जाती
हैं। इसके आरंभ में हम अपनी प्रिया में अनुरक्त वसंत नामक एक सुंदर और
विचारशील युवक को जीवन की गंभीर वितर्कदशा में पाते हैं। एक ओर उसे प्रकृति
की प्रमोदमयी सुषमाओं के बीच प्रियतमा के साहचर्य का प्रेमसुख लीन रखना
चाहता है, दूसरी ओर समाज के असंख्य प्राणियों का कष्ट क्रंदन उसे उध्दार के
लिए बुलाता जान पड़ता है। दोनों पक्षों के बहुत से सजीव चित्र बारी बारी से
बड़ी दूर तक चलते हैं। फिर उस युवक के मन में जगत् और जीवन के संबंध में
गंभीर जिज्ञासाएँ उठती हैं। जगत् के इस नाना रूपों का उद्गम कहाँ है?
सृष्टि के इन व्यापारों का अंतिम लक्ष्य क्या है? यह जीवन हमें क्यों दिया
गया है? इसी प्रकार के प्रश्न उसे व्याकुल करते रहते हैं और कभी कभी वह
सोचता है ,
इसी तरह की अमित कल्पना के प्रवाह में मैं निशिवासर,
बहता रहता हूँ विमोहवश; नहीं पहुँचता कहीं तीर पर।
रात दिवस ही बूँदों द्वारा तन घट से परिमित यौवन जल;
है निकला जा रहा निरंतर, यह रुक सकता नहीं एक पल
कभी कभी उसकी वृत्ति रहस्योन्मुख होती है, वह सारा खेल खड़ा करने वाले उस
छिपे हुए प्रियतम का आकर्षण अनुभव करता है और सोचता है कि मैं उसके अन्वेषण
में क्यों न चल पड़न्नँ।
उसकी प्रिया सुमना उसे दिन रात इस प्रकार भावनाओं में ही मग्न और
अव्यवस्थित देखकर कर्म मार्ग पर स्थिर हो जाने का उपदेश देती है ,
सेवा है महिमा मनुष्य की, न कि अति उच्च विचार द्रव्य बल।
मूल हेतु रवि के गौरव का है प्रकाश ही न कि उच्च स्थल
मन की अमित तरंगों में तुम खोते हो इस जीवन का सुख
इसके उपरांत देश पर शत्रु चढ़ाई करता है और राजा उसे रोकने में असमर्थ होकर
घोषणा करता है कि प्रजा अपनी रक्षा कर ले। इसपर देश के झुंड के झुंड युवक
निकल पड़ते हैं और उनकी पत्नियाँ और माताएँ गर्व से फूली नहीं समाती हैं।
देश की इस दशा में वसंत को घर में पड़ा देख उसकी पत्नी सुमना को अत्यंत
लज्जा होती है और वह अपने पति से स्वदेश के इस संकट के समय शस्त्रा ग्रहण
करने को कहती है। जब वह देखती है कि उसका पति उसी के प्रेम के कारण नहीं
उठता है तब वह अपने को ही प्रिय केर् कत्ताव्यपथ का बाधक समझती है। वह
सुनती है कि एक रुग्णा वृध्दा यह देखकर कि उसका पुत्र उसी की सेवा के ध्यान
से युद्ध पर नहीं जाता है, अपना प्राण त्याग कर देती है। अंत में सुमना
अपने को वसंत के सामने से हटाना ही स्थिर करती है और चुपचाप घर से निकल
पड़ती है। वह पुरुष वेष में वीरों के साथ सम्मिलित होकर अत्यंत पराक्रम के
साथ लड़ती है। उधर वसंत उसके वियोग में प्रकृति के खुले क्षेत्र में अपनी
प्रेम वेदना की पुकार सुनाता फिरता है, पर सुमना उस समय प्रेमक्षेत्र से
दूर थी ,
अर्ध्द निशा में तारागण से प्रतिबिंबित अति निर्मल जलमय।
नीलझील के कलित कूल पर मनोव्यथा का लेकर आश्रय
नीरवता में अंतस्तल का मर्म करुण स्वर लहरी में भर।
प्रेम जगाया करता था वह विरही विरह गीत गा गा कर
भोजपत्र पर विरहव्यथामय अगणित प्रेमपत्र लिख लिखकर।
डाल दिए थे उसने गिरि पर, नदियों के तट पर, वनपथ पर
पर सुमना के लिए दूर थे ये वियोग के दृश्य कदंबक।
और न विरही की पुकार ही पहुँच सकी उसके समीप तक
अंत में वसंत एक युवक (वास्तव में पुरुष वेष में सुमना) के उद्बोधा से निकल
पड़ता है और अपनी अद्भुत वीरता द्वारा सबका नेता बनकर विजय प्राप्त करता है।
राजा यह कहकर कि 'जो देश की रक्षा करे वही राजा' उसको राज्य सौंप देता है।
उसी समय सुमना भी उसके सामने प्रकट हो जाती है।
स्वदेशभक्ति की भावना कैसे मार्मिक और रसात्मक रूप में कथा के भीतर व्यक्त
हुई है, यह उपर्युक्त सारांश द्वारा देखा जा सकता है। जैसाकि हम पहले कह आए
हैं त्रिपाठीजी की कल्पना मानवहृदय के सामान्य मर्मपथ पर चलनेवाली है। इनका
ग्रामगीत संग्रह करना इस बात को और भी स्पष्ट कर देता है। अत: त्रिपाठीजी
हमें स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के प्रकृत पथ पर दिखाई पड़ते हैं। इनकी
रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं ,
चारु चंद्रिका से आलोकित विमलोदक सरसी के तट पर,
बौरगंधा से शिथिल पवन में कोकिल का आलाप श्रवण कर।
और सरक आती समीप है प्रमदा करती हुई प्रतिध्वनि;
हृदय द्रवित होता है सुनकर शशिकर छूकर यथा चंद्रमणि
किंतु उसी क्षण भूख प्यास से विकल वस्त्र वंचित अनाथगण,
'हमें किसी की छाँह चाहिए' कहते चुनते हुए अन्नकण,
आ जाते हैं हृदय द्वार पर, मैं पुकार उठता हूँ तत्क्षण ,
हाय! मुझे धिाक् है जो इनका कर न सका मैं कष्टनिवारण।
उमड़घुमड़ कर जब घमंड से उठता है सावन में जलधार,
हम पुष्पित कदंब के नीचे झूला करते हैं प्रतिवासर।
तड़ित्प्रभा या घनगर्जन से भय या प्रेमोद्रेक प्राप्त कर,
वह भुजबंधान कस लेती है, यह अनुभव है परम मनोहर।
किंतु उसी क्षण वह गरीबिनी, अति विषादमय जिसके मँहपर,
घुने हुए छप्पर की भीषण चिंता के हैं घिरे वारिधार,
जिसका नहीं सहारा कोई, आ जाती है दृग के भीतर,
मेरा हर्ष चला जाता है एक आह के साथ निकल कर
(स्वप्न)
प्रतिक्षण नूतन भेष बनाकर रंगबिरंग निराला।
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिदमाला
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।
घन पर बैठ बीच में बिचरूँ, यही चाहता मन है
सिंधुविहंग तरंग पंख को फड़का कर प्रतिक्षण में।
है निमग्न नित भूमि अंड के सेवन में, रक्षण में
(पथिक)
मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू।
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में।
बनकर किसी के ऑंसू मेरे लिए बहा तू।
मैं देखता तुझे था माशूक के वदन में
(फुटकल)
12. स्वर्गीय लाला भगवानदीन , दीनजी के जीवन का प्रारंभिक काल उस बुंदेलखंड
में व्यतीत हुआ था जहाँ देश की परंपरागत पुरानी संस्कृति अभी बहुत कुछ बनी
हुई है। उनकी रहन सहन बहुत सादी और उनका हृदय सरल और कोमल था। उन्होंने
हिन्दी के पुराने काव्यों का नियमित रूप में अध्ययन किया था इससे वे ऐसे
लोगों से कुढ़ते थे जो परंपरागत हिन्दी साहित्य की कुछ भी जानकारी प्राप्त
किए बिना केवल थोड़ी सी अंग्रेजी शिक्षा के बल पर हिन्दी कविताएँ लिखने लग
जाते थे। बुंदेलखंड में शिक्षित वर्ग के बीच और सर्वसाधारण में भी हिन्दी
कविता का सामान्य रूप में प्रचार चला आ रहा है। ऋतुओं के अनुसार जो त्योहार
और उत्सव रखे गए हैं, उनके आगमन पर वहाँ लोगों में अब भी प्राय: वही उमंग
दिखाई देती है। विदेशी संस्कारों के कारण वह मारी नहीं गई है। लाला साहब
वही उमंगभरा हृदय लेकर छतरपुर से काशी आ रहे। हिन्दी शब्दसागर के संपादकों
में एक वे भी थे। पीछे हिंदू विश्वविद्यालय में हिन्दी के अध्यापक हुए।
हिन्दी साहित्य की व्यवस्थित रूप से शिक्षा देने के लिए काशी में उन्होंने
एक साहित्य विद्यालय खोला जो उन्हीं के नाम से अब तक बहुत अच्छे ढंग पर चला
जा रहा है। कविता में वे अपना उपनाम 'दीन' रखते थे।
लालाजी का जन्म संवत् 1924 (अगस्त 1866) में और मृत्यु 1987 (जुलाई,1930)
में हुई।
पहले वे ब्रजभाषा में पुराने ढंग की कविता करते थे, पीछे 'लक्ष्मी' के
संपादक हो जाने पर खड़ी बोली की कविताएँ लिखने लगे। खड़ी बोली में उन्होंने
वीरों के चरित्र लेकर बोलचाल की कड़कड़ाती भाषा में जोशीली रचना की है। खड़ी
बोली की कविताओं का तर्ज उन्होंने प्राय: मुंशियाना ही रखा था। बद्द या छंद
भी उर्दू के रखते थे और भाषा में चलते अरबी या फारसी शब्द भी लाते थे। इस
ढंग से उनके तीन काव्य निकले हैं , 'वीर क्षत्राणी', 'वीर बालक' और 'वीर
पंचरत्न'। लालाजी पुराने हिन्दी काव्य और साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे।
बहुत से प्राचीन काव्यों की नए ढंग की टीकाएँ करके उन्होंने अध्ययन के
अभिलाषियों का बड़ा उपकार किया है। रामचंद्रिका, कविप्रिया, दोहावली,
कवितावली, बिहारी सतसई आदि की इनकी टीकाओं ने विद्यार्थियों के लिए अच्छा
मार्ग खोल दिया। भक्ति और श्रृंगार की पुराने ढंग की कविताओं में उक्ति
चमत्कार वे अच्छा लाते थे।
उनकी कविताओं के दोनों तरह के नमूने नीचे देखिए ,
सुनि मुनि कौसिक तें साप को हवाल सब,
बाढ़ी चित करुना की अजब उमंग है।
पदरज डारि करे पाप सब छारि,
करि नवल सुनारि दियो धामहू उतंग है।
'दीन' भनै ताहि लखि जात पतिलोक,
ओर उपमा अभूत को सुझानों नयो ढंग है।
कौतुकनिधान राम रज की बनाय रज्जु,
पद तें उड़ाई ऋषिपतिनीपतंग है
वीरों की सुमाताओं का यश जो नहींगाता।
वह व्यर्थ सुकवि होने का अभिमान जनाता
जो वीरसुयश गाने में है ढील दिखाता।
वह देश के वीरत्व का है मान घटाता
सब वीर किया करते हैं सम्मान कलम का।
वीरों का सुयशगान है अभिमान कलम का
इनकी फुटकल कविताओं का संग्रह 'नवीन बीन' या 'नदीमें दीन' में है।
13. पं. रूपनारायण पांडेय , पांडेयजी ने यद्यपि ब्रजभाषा में भी बहुत कुछ
कविता की है, पर इधर अपनी खड़ी बोली की कविताओं के लिए ही ये अधिक प्रसिद्ध
हैं। इन्होंने बहुत उपयुक्त विषय कविता के लिए चुने हैं और उनमें पूरी
रसात्मकता लाने में समर्थ हुए हैं। इनके विषय के चुनाव में ही भावुकता
टपकती है, जैसे , दलित कुसुम, वनविहंगम, आश्वासन। इनकी कविताओं का संग्रह
'पराग' के नाम से प्रकाशित हो चुका है। पांडेयजी की 'वनविहंगम' नाम की
कविता में हृदय की विशालता और सरसता का बहुत अच्छा परिचय मिलता है। 'दलित
कुसुम' की अन्योक्ति भी बड़ी हृदयग्राहिणी है। संस्कृत और हिन्दी दोनों के
छंदों में खड़ी बोली को इन्होंने बड़ी सुघड़ाई से ढाला है। यहाँ स्थानाभाव से
हम दो ही पद उध्दृत कर सकते हैं ,
अहह! अधम ऑंधाी, आ गई तू कहाँ से?
प्रलय घनघटासी छा गई तू कहाँ से?
परदुखसुख तू ने, हा! न देखा न भाला।
कुसुम अधाखिला ही, हाय! यों तोड़ डाला
बन बीच बसे थे फँसे थे ममत्व में एक कपोत कपोती कहीं।
दिन रात न एक को दूसरा छोड़ता, ऐसे हिले मिले दोनों वहीं
बढ़ने लगा नित्य नया नया नेह, नईनई कामना होती रही।
कहने का प्रयोजन है इतना, उनके सुख की रही सीमा नहीं
14. पं. सत्यनारायण 'कविरत्न' , खड़ी बोली की खरखराहट (जो तब तक बहुत कुछ
बनी हुई थी) के बीच 'वियोगी हरि' के समान स्वर्गीय पं. सत्यनारायण
'कविरत्न' (जन्म संवत् 1936, मृत्यु 1975) भी ब्रज की मधुरवाणी सुनाते रहे।
रीतिकाल के कवियों की परंपरा पर न चलकर वे या तो भक्तिकाल के कृष्णभक्त
कवियों के ढंग पर चले हैं अथवा भारतेंदुकाल की नूतन कविता की प्रणाली पर।
ब्रजभूमि, ब्रजभाषा और ब्रजपति का प्रेम उनके हृदय की संपत्ति थी। ब्रज के
अतीत दृश्य उनकी ऑंखों में फिरा करते थे। इंदौर के पहले साहित्य सम्मेलन के
अवसर पर ये मुझे वहाँ मिले थे। वहाँ की अत्यंत काली मिट्टी देख वे बोले,
'या माटी को तो हमारे कन्हैया न खाते'।
अंग्रेजी की ऊँची शिक्षा पाकर भी उन्होंने अपनी चाल ढाल ब्रजमंडल के
ग्रामीण भलेमानसों की ही रखी। धोती, बगलबंदी और दुपट्टा, सिर पर एक गोल
टोपी; यही उनका वेष रहता था। ये बाहर जैसे सरल और सादे थे, भीतर भी वैसे ही
थे। सादापन दिखावे के लिए धारण किया हुआ नहीं है, स्वभावत: है, यह बात
उन्हें देखते ही और उनकी बातें सुनते ही प्रकट हो जाती थी। बाल्यकाल से
लेकर जीवनपर्यंत वे आगरा से डेढ़ कोस पर ताजगंज के पास धााँधाूपुर गाँव में
ही रहे। उनका जीवन क्या था, जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टांत था।
उनका जन्म और बाल्यकाल, विवाह और गार्हस्थ, सब एक दुखभरी कहानी के संबद्ध
खंड थे। वे थे ब्रजमाधुरी में पगे जीव, उनकी पत्नी थीं आर्यसमाज के तीखेपन
में पली महिला। इस विषमता की विरसता बढ़ती ही गई और थोड़े ही अवस्था में
कविरत्नजी की जीवन यात्रा समाप्त हो गई।
ब्रजभाषा की कविताएँ वे छात्राावस्था से ही लिखने लगे थे। वसंतागमन पर
वर्षा के दिनों में वे रसिए आदि ग्रामगीत अपढ़ ग्रामीणों में मिलकर
निस्संकोच गाते थे। सवैया पढ़ने का ढंग उनका ऐसा आकर्षक था कि सुननेवाले
मुग्धा हो जाते थे। जीवन की घोर विषमताओं के बीच भी वे प्रसन्न और हँसमुख
दिखाई देते थे। उनके लिए उनका जीवन ही एक काव्य था, अत: जो बातें प्रत्यक्ष
उनके सामने आती थीं, उन्हें काव्य का रूप रंग देते उन्हें देर नहीं लगती
थी। मित्रों के पास वे प्राय: पद्य में पत्र लिखा करते थे जिनमें कभी कभी
उनके स्वभाव की झलक भी रहती थी, जैसे स्वर्गीय पद्मसिंहजी के पास भेजी हुई
इस कविता में ,
जो मों सों हँसि मिलै होत मैं तासु निरंतर चेरो।
बस गुन ही गुन निरखत तिह मधिा सरल प्रकृति को प्रेरो
यह स्वभाव को रोग जानिए, मेरो बस कछु नाहीं।
नित नव विकल रहत याही सो सहृदय बिछुरन माहीं
सदा दारुयोषित सम बेबस आज्ञा मुदित प्रमानै।
कोरो सत्य ग्राम को वासी कहा 'तकल्लुफ' जानै
किसी का कोई अनुरोध टालना उनके लिए असंभव था। यह जानकर बराबर लोग किसी न
किसी अवसर के उपयुक्त कविता बना देने की प्रेरणा उनसे किया करते थे और वे
किसी को निराश न करते थे। उनकी वही दशा थी जो उर्दू के प्रसिद्ध शायर इंशा
की लखनऊ दरबार में हो गई थी। इससे उनकी अधिकांश रचनाएँ सामयिक हैं और जल्दी
में जोड़ी हुई प्रतीत होती हैं, जैसे , स्वामी रामतीर्थ, तिलक गोखले,
सरोजिनी नायडू इत्यादि की प्रशस्तियाँ, लोकहितकर आयोजनों के लिए अपील
(हिंदू विश्वविद्यालय के लिए लंबी अपील देखिए), दुख और अन्याय के निवारण के
लिए पुकार (कुली प्रथा के विरुद्ध 'पुकार' देखिए)।
उन्होंने जीती जागती ब्रजभाषा ली है। उनकी ब्रजभाषा उसी स्वरूप में बँधी न
रहकर जो काव्यपरंपरा के भीतर पाया जाता है, बोलचाल के चलते रूपों को लेकर
चली है। बहुत से ऐसे शब्द और रूपों का उन्होंने व्यवहार किया है जो
परंपरागत काव्यभाषा में नहीं मिलते।
'उत्तररामचरित' और 'मालतीमाधव' के अनुवादों में श्लोकों के स्थान पर
उन्होंने बड़े मधुर सवैये रखे हैं। मकाले के अंग्रेजी खंडकाव्य 'होरेशस' का
पद्यबद्ध अनुवाद उन्होंने बहुत पहले किया था। कविरत्नजी की बड़ी कविताओं में
'प्रेमकली' और 'भ्रमरदूत' विशेष उल्लेख योग्य हैं। 'भ्रमरदूत' में यशोदा ने
द्वारका में जा बसे हुए कृष्ण के पास संदेश भेजा है। उसकी रचना नंददास के
'भ्रमरगीत' के ढंग पर की गई है, पर अंत में देश की वर्तमान दशा और अपनी दशा
का भी हलका सा आभास कवि ने दिया है। सत्यनारायण जी की रचना के कुछ नमूने
देखिए ,
अलबेली कहु बेलि द्रुमन सों लिपटि सुहाई।
धाोयेधाोये पातन की अनुपम कमनाई
चातक शुक कोयल ललित बोलत मधुरे बोल।
कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल
निरखि घन की घटा।
लखि वह सुषमा जाल लाल निज बिन नंदरानी।
हरि सुधि उमड़ी घुमड़ी तन उर अति अकुलानी
सुधि बुधिा तजि माथौ पकरि, करि करि सोच अपार।
दृगजल मिस मानहु निकरि बही विरह की धार
कृष्ण रटना लगी।
कौने भेजौं दूत, पूत सों बिथा सुनावै।
बातन में बहराइ जाइ ताको यहँ लावै
त्यागि मधुपुरी को गयो छाँड़ि सबन के साथ।
सात समुंदर पै भयो दूर द्वारकानाथ
जाइगो को उहाँ?
नित नव परत अकाल, काल को चलत चक्र चहुँ।
जीवन को आनंद न देख्यो जात यहाँ कहुँ
बढ़यो जथेच्छाचार कृत जहँ देखौ तहँ राज।
होत जात दुर्बल विकृत दिन दिन आर्यसमाज
दिनन के फेर सों।
जे तजि मातृभूमि सों ममता होत प्रवासी।
तिन्हैं बिदेसी तंग करत दै बिपदा खासी
नारीशिक्षा अनादरत जे लोग अनारी।
ते स्वदेश अवनति प्रचंड पातक अधिकारी
निरखि हाल मेरो प्रथम लेहु समुझि सब कोइ।
विद्याबल लहि मति परम अबला सबला होइ
लखौं अजमाइ कै।
(भ्रमरदूत)
भयो क्यों अनचाहत को संग?
सब जग के तुम दीपक, मोहन! प्रेमी हमहुँ पतंग
लखि तब दीपति, देहशिखा में निरत, बिरह लौं लागी।
खींचति आप सों आप उतहि यह, ऐसी प्रकृति अभागी
यद्यपि सनेह भरी तव बतियाँ, तउ अचरज की बात।
योग वियोग दोउन में इक सम नित्य जरावत गात
संदर्भ
1. संवत् 1967 में प्रकाशित हो गया।
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